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उपन्यास >> अपने अपने अजनबी

अपने अपने अजनबी

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9550

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अज्ञैय की प्रसिद्ध रचना


एक स्वरहीन हँसी हँसकर उन्होंने फिर कहा, 'थोड़ी-सी लकड़ी भी तो पड़ी है - उसको अगर अभी से लाकर यहीं रख छोड़ें तो सूखी रहेगी और क्रिसमस के दिन भारी आग जलायेंगे क्योकि गरमाई भी तो बर्फ से कम जरूरी नहीं है।'

योके ने खोये हुए स्वर में कहा, 'लेकिन आंटी, क्रिसमस तो अभी बड़ी दूर है। तब तक क्या होगा?'

आंटी सेल्मा उठकर योके के पास आ गयीं और उसके कन्धे पर हाथ रखती हुई बोलीं, 'योके, तुम्हारी अभी उमर ही ऐसी है न। सभी-कुछ बड़ी दूर लगता है। मुझसे पूछो न, क्रिसमस कोई ऐसी दूर नहीं है, मेरे लिए ही - ' और वह फिर बात अधूरी छोड़कर चुप हो गयीं।

योके ने एक बार तीखी नजर से उनकी ओर देखा। आंटी सेल्मा क्या कहना चाहती हैं, या कि क्या कहना नहीं चाहतीं जो बार-बार उनकी जबान पर आ जाता है? क्या वह उनसे सीधे-सीधे पूछ ले कि उनके मन में क्या है? क्या सचमुच आंटी सेल्मा का यही अनुमान है कि वे दोनों अब बचेंगी नहीं - यही बर्फ से ढँका हुआ काठ का बँगला उनकी कब्र बन जाएगा। बल्कि कब्र बन क्या जाएगा, कब्र तो बनी-बनाई तैयार है और उन्हीं को मरना बाकी है। कब्र तो समय से ही बन गयी है - उन्हें ही मरने में देर हो गयी है - इस काल-विपर्यय के लिये ही विधि को दोष नहीं दिया जा सकता।

लेकिन वह आंटी सेल्मा से क्या पूछे - कैसे पूछे? यहाँ सैर करने और बर्फ पर दौड़ करने तो वह स्वेच्छा से ही आयी थी और पहाड़ की अधित्यका में इस काठ-बँगले की स्थिति से आकृष्ट हो गयी थी, और यहाँ रहने का प्रस्ताव भी उसी ने किया था। आंटी सेल्मा गड़रियों की माँ है - दो लड़के अब भी गड़रिए हैं, एक लकड़हारा हो गया है; तीनों नीचे गये हुए हैं और जाड़ों के बाद ही लौटकर आएँगे। यह तो उनका हर साल का क्रम है - जाड़ों में रेवड़ लेकर नीचे चले जाते हैं और वसन्त में फिर आ जाते हैं। यों तो आंटी सेल्मा को भी चले जाना चाहिए था, लेकिन न जाने क्यों इस वर्ष वह यहीं रह गयीं। उन्हें देखकर पहले तो योके को आश्चर्य हुआ था। क्योंकि उसका अनुमान था कि काठ-बँगला खाली ही होगा, जैसा कि प्राय: इन पहाड़ों में होता है। फिर उसने मन-ही-मन अनुमान कर लिया था कि बुढ़िया कंजूस और शक्की तबीयत की होगी और उसको सामान से भरा हुआ घर खाली छोड़कर जाना न रुचा होगा - जाड़ों में काम-काज तो कुछ होता नहीं, और बर्फ के नीचे उतनी ठंड भी नहीं होती जितनी बाहर खुली हवा में, बूढ़ों को चिन्ता किस बात की - एक ही जगह बैठे-बैठे पगुराते रहते हैं। अतीत की स्मृतियाँ कुरेदकर जुगाली करते हैं और फिर निगल लेते हैं।

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