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धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति

असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

मित्र का संदेह मजबूत होने लगा। शांति खो गई थी। दो-चार मिनट आत्मा-परमात्मा की फिर बात चलती रही। मित्र ने फिर पूछा, क्या मैं पूछ सकता हूँ आपका नाम? उन्होंने डंडा उठा लिया। उन्होंने कहा कि अब मैं तुम्हें बताता हूँ मेरा नाम। उसके मित्र ने कहा, मैं पहचान गया, शांतिनाथ जी। आप मेरे पुराने ही मित्र हैं, कोई फर्क कहीं भी नहीं हुआ है।

चित्त स्वयं को, सबको धोखा देने में समर्थ है। लेकिन धोखे से चित्त रुग्ण होता चला जाता है, अस्वस्थ होता चला जाता है। हम सब भी ऐसे धोखे रोज दे रहे हैं। हमारी मुस्कुराहटें झूठी, हमारा प्रेम झूठा, हमारी दया झूठी, हमारी अहिंसा झूठी और भीतर हमारी जो सच्चाई है, वह बिलकुल और। बाहर से हम मुनि शांतिनाथ हैं, भीतर हम कौन है--वह हमें खोजना है और जानना है। वह हमें पहचानना है कि भीतर हम कौन हैं?

यह जो बाहर का सारा का सारा हमने एक फिक्शन, एक कल्पना, एक सपना खड़ा कर रखा है, एक आदर्श अपने ऊपर ओढ़ रखा है--यही है, जो हमारे जीवन में क्रांति को, ट्रांसफार्मेशन को नहीं आने देता है। इसके कारण हम तथ्यों को देख ही नहीं पाते। तो फिर तथ्यों को बदलने का सवाल कहाँ उठता है? और, एक और बहुत मजे की बात है कि तथ्यों को देखना ही, उनकी बदलाहट हो जाती है। किसी तथ्य को पूरी तरह देख लेना ही उसकी बदलाहट हो जाती है। लेकिन तथ्य की तीव्रता से हम दर्शन नहीं कर पाते तो बदलाहट नहीं हो पाती।

एक वैज्ञानिक एक प्रयोग करता था। उसने दो बाल्टियों में पानी भरा और दो मेंढक पकड़कर लाया। एक बाल्टी में उसने उबलता हुआ पानी भरा और मेंढक को उसमें छोड़ा। जानते हैं आप क्या हुआ मेढक छलांग लगाकर बाहर निकल गया। उबलता हुआ पानी था। क्या होता और होना क्या था? इतना तीव्र था उत्ताप जल का--मेढक दौड़ा, वह छलांग लगाकर बाहर निकल गया। इस बात का दिखाई पड़ जाना मेढक को कि आग सा पानी है--फिर कुछ करना थोड़े ही पड़ा। हो गई बात। निकल गया बाहर।

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