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धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति

असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

वह तो बहुत हैरान हो गया। मुंह साफ कर लेना। उसने कहा, मुंह गंदा हो जाता है। जब भी नाम आ जाए तो पहले मुंह साफ करना, फिर दूसरा काम करना।

पीछे, वर्षों बाद जब उस युवक को सत्य की अनुभूति हुई तो उसने कहा, धन्य था हुई-हाई, जिसने मुझे बुद्ध से बचाया। नहीं तो मैं बुद्ध का नाम ही रटता हुआ समाप्त हो जाता।

और आज मैं कह सकता हूँ कि मैंने वह जान लिया, जो मैं बुद्ध का नाम रट कर जानना चाहता था, लेकिन नहीं जान सकता था। आज मैं कह सकता हूँ कि बुद्ध के प्रति मेरे मन में जो प्रेम और आदर उमड़ा है, वह उस नाम जपने में कहीं भी नहीं था।

लेकिन मैं भी अगर किसी को सलाह दूंगा, तो अब यही दूंगा कि बुद्ध से बचने की कोशिश करना। क्योंकि बुद्ध का नाम, राम का नाम, कृष्ण का नाम परमात्मा तक पहुँचने में बाधा बन जाता है। लेकिन इतना ही ड्रास्टिक, इतना ही सख्त और तीखा हुई-हाई ने उस पर प्रयोग किया था, जिसके लिए पीछे वह धन्यवाद से भरा हुआ रहा।

एक फकीर था। एक रात एक मदिर में ठहरा हुआ था। सर्द रात थी। मदिर में वह भीतर गया और बुद्ध की एक प्रतिमा लाकर--लकड़ी की प्रतिमा थी, उसने आग लगा ली और तापने लगा। पुजारी को आग जली दिखी, आधी रात को। वह भागा हुआ अंदर आया कि क्या हुआ। वहाँ देखकर तो उसके होश खो गए। जिसको साधु समझकर मंदिर में ठहरा लिया था, भूल हो गई--वह आदमी बुद्ध की प्रतिमा जलाकर आंच ताप रहा था। उस पुजारी ने कहा, पागल हो। यह क्या करते हो भगवांन की मूर्ति जला रहे हो।

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