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धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति

असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

और आपने ही तो कहा था कि तीन अंडे तीन बार खरीदने जाने की कोई जरूरत नहीं है।

शब्द को पकड़ लिया। और फिर शब्द से ऐसा अर्थ भी निकल सकता है, कौन सी कठिनाई है।

मैंने कहा, मेरी किताबों को आग लगा देना, अगर शास्त्र बन जाएं। फौरन आप समझ गए कि मैंने कहा, जाओ शास्त्रों में आग लगा दो। तीन अंडे इकटठे ही खरीद लाए आप। थोड़ी भी तो समझ, थोड़ी भी तो सहानुभूति, थोड़ी भी तो सिम्पैथेटिक अंडरस्टेडिंग होनी चाहिए-- क्या मैं कह रहा हूँ। शब्दों के शरीर को पकड़ लेंगे या थोड़ा उनकी आत्मा में भी झांकने की कोशिश करेंगे। तो अगर आत्मा में झाकने की कोशिश करेंगे तो ऐसा नहीं दिखाई पड़ेगा कि मैं शास्त्रों का विरोधी हूँ। शायद मुझसे ज्यादा मित्र उनका कोई भी नहीं है। दुश्मन तो वे ही हैं जो उनको पकड़कर बैठ गए हैं। उनके कारण ही शास्त्रों के भी प्राण निकल गए हैं और पकड़ने वालों के भी प्राण निकल गए हैं। आप शास्त्रों से मुक्त हो जाएं तो एक दूसरी घटना भी घटेगी, शास्त्र आपसे मुक्त हो जाएंगे। एक म्युचुअल इंप्रिजनमेंट चल रहा है। हम शास्त्रों को पकड़े हुए हैं, शास्त्र हमको पकड़े हुए हैं। न शास्त्र इधर हिल-डुल सकते हैं, न हम। और फिर ऐसा जोर से पकड़ लिया है शब्दों को कि उनकी जान निकाल दी है, उनकी गर्दन कस ली है बिलकुल, इसलिए सुन नहीं पाते हैं। क्योंकि शब्दों पर ऐसा आग्रह, ऐसा दुराग्रह पकड़ा हुआ है। देख नहीं पाते हैं शब्दों के पीछे।

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