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धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति

असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

उस पर मुकदमा चला। वह पकड़ लिया गया। और मजिस्ट्रेट ने उससे पूछा कि तुमने इस स्त्री पर क्यों हमला किया? न तुम्हारा कोई परिचय है, न कोई पहचान। तुम पागल तो नहीं हो उसने कहा, पागल तो मैं नहीं हूँ। लेकिन उस क्षण पागल हो गया था। मजिस्ट्रेट ने पूछा क्या घटना घटी, जिससे तुम हमला करने को तैयार हुए, तो उसने कहा घटना ऐसी घटी है।

मैं बस में आकर बैठा। मेरे पीछे ही यह औरत भी आकर बैठी। इसके हाथ में एक बैग था। इसने बैग को खोला। उसके भीतर से पर्स निकाली। फिर बैग को बंद किया, फिर पर्स को खोला, फिर पर्स में से रुपए निकाले। फिर पर्स बंद की। कंडक्टर आ रहा था। लेकिन कंडक्टर दूसरे ग्राहक के पास चला गया। इसने फिर अपनी पर्स खोली, रुपया अंदर रखा, पर्स बंद की, बैग खोला, बैग में पर्स रखी, बैग बंद किया। कंडक्टर फिर इधर आ रहा था। इसने फिर बैग खोला, पर्स बाहर निकाली, बैग बंद किया, पर्स खोली, रुपया बाहर निकाला, पर्स बंद की। फिर कंडक्टर दूसरी तरफ चला गया। इसने फिर पर्स खोली।

मजिस्ट्रेट बोला, स्टाप। यू विल ड्राइव मी क्रेजी, तुम मुझे पागल कर दोगे। चुप हो।

उस आदमी ने कहा, सर, दिस इज वाट, दैट हैपंड विथ मी। यही तो मेरे साथ हुआ कि मैं एकदम पागल हो गया।

कोई चीज रिपीट, रिपीट, रिपीट, रिपीट, दोहरे, दोहरे दोहरे, तो दिमाग ऊब जाए, घबड़ा जाए। उस घबड़ाहट में रास्ता एक ही रह जाए कि सो जाओ।

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