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धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति

असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

मैंने उनसे निवेदन किया--बुरा लगेगा, उनसे मैंने कहा, लेकिन आपको पता नहीं ब्रह्मचर्य के नाम पर आप और भी कामुक हो गई हैं। यह तो कामोत्तेजना की हद हो गई कि वस्त्र के स्पर्श से--और भय हो। यह भय इस बात की सूचना है कि भीतर पुरुष के स्पर्श को नहीं करना है, इस बात को इतना दबाया है--पुरुष के स्पर्श का स्वाभाविक भाव हो सकता है-- उसे इतना दबाया है, इतना दबाया है कि आज पुरुष का वस्त्र भी छू जाए तो वह टेंपटेशन बन गया, वह प्रेरणा बन गई, वह घबड़ाहट बन गई।

तो अगर अब ऐसा ब्रह्मचर्य का व्रत लिया हुआ आदमी यह सोचता हुआ कि मैं ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हुआ हूँ--अगर अपने ब्रह्मचर्य के थोड़े पीछे उतरेगा तो ठीक ब्रह्मचर्य के पीछे पाएगा कि सेक्स खडा हुआ है। तो बड़ी घबड़ाहट होगी, वह वापस लौट आएगा कि ऐसा पीछे जाने में कोई फायदा नहीं। यहाँ पीछे जाने से तो उलटी बातें पैदा होती हैं।

एक बहुत बड़े साधु हैं, बड़े ख्यातिनाम। किसी ने मुझे आकर कहा कि कोई पैसा-रुपया उनके सामने ले जाए तो वे सिर फेर लेते हैं, आँख बंद कर लेते हैं। तो उन्होंने बड़ी तारीफ के लिए मुझसे कहा था कि वे बडे परम-त्यागी हैं, रुपए को देखकर एकदम आँख फेर लेते हैं। मैंने उनसे कहा, रुपया इतना निर्दोष है, उसे देखकर आँख फेरना, बड़ी बीमारी का लक्षण है। रुपए में ऐसा क्या है कि आँख फेरी जाए? रुपया, रुपए की जगह है, आँख फेरने की जरूरत और आँख फेरनी पड़ती है तो रुपए में रस है। नहीं तो आँख फेरने की जरूरत नहीं पड़ेगी। और रुपए में बहुत रस है।

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