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धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति

असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

शायद ऐसा लगता है कि इस भ्रम में कि हमें पता नहीं है क्या करें, इसलिए हम कुछ नहीं करते हैं--चलता चला जाता है। ठीक-ठीक पता है सब बात का। करना चाहते हैं तो अभी कर सकते हैं। क्या कठिनाई है कब तक पूछते रहेंगे? कब तक पूछते रहेंगे कि क्या करें, क्या करें, क्या करें- नहीं, यह न पूछें। समझें और करना शुरू कर दें। कुछ एक-आध कदम तो चलें।

एक रात एक गांव के पास एक युवक अपनी लालटेन लिए हुए बैठा था। कोई चार बजे होंगे रात के। पास ही दस मील दूर एक पहाड़ी थी, उसे देखने जा रहा था। लेकिन सुबह चलेगा तो धूप हो जाएगी, कठिनाई होगी। इसलिए तीन बजे रात उठकर चला था। फिर लालटेन लेकर गांव के बाहर पहुँचा तो अमावस की रात, घना अंधकार तो वह लालटेन रखकर बैठ गया। उसने सोचा कि लालटेन है छोटी सी, फीट-दो फीट तक रोशनी जाती है, दस मील का रास्ता कैसे पार होगा दस मील तक प्रकाश होता तो चले भी जाते। कुछ दो फीट तक प्रकाश पड़ता है। और दस मील का लंबा रास्ता। हे भगवांन, यह नहीं हो सकता। उसने दस मील में दो फीट का भाग दिया होगा, तो समझ में आ गया कि यह तो बहुत कठिन बात है। गणित उसे मालूम था। दो फीट की रोशनी है, दस मील का रास्ता है--अंधेरे से भरा हुआ--काम होगा कैसे?

वह वहाँ बैठ गया, सूरज निकल आए तो जाऊं। ऐसे तो काम नहीं चल सकता। पीछे से एक बूढ़ा आदमी भी उसी पहाड़ की तरफ जाता था। उसने पूछा कि बेटे, तुम बैठे क्यों हो? उसने कहा कि मैं इसलिए बैठा हूँ कि सूरज निकल आए तो जाऊं। क्योंकि रास्ता है दस मील लंबा और मेरे पास छोटी सी लालटेन है और दो फीट रोशनी पड़ती है। कैसे होगा यह यह पार कैसे पड़ेगी बात?

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