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धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति

असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

एक और मित्र ने पूछा है कि मैं ईश्वर के दर्शन कैसे कर सकता हूँ?

तो मैं आपसे निवेदन करूंगा, ''आप', अर्थात ''मैं', यह कभी भी ईश्वर का दर्शन नहीं कर सकता है। ''मैं' की कोई भाषा ईश्वर तक ले जाने वाली नहीं है। जिस दिन ''मैं' न रह जाएगा, उस दिन तो कुछ हो सकता है। लेकिन जब तक ''मैं' हूँ, कि मुझे करना है ईश्वर के दर्शन--तो यह ''मैं' ही तो बाधा है।

विक्टोरिया, महारानी विक्टोरिया अपने पति से एक दिन लड़ पड़ी थी। उसका पति अल्बर्ट कुछ भी नहीं बोला, चुपचाप जाकर अपने कमरे में बंद होकर द्वार उसने लगा लिया। विक्टोरिया क्रोध में थी, वह भागी हुई पीछे गई। उसने जाकर द्वार पर जोर से धक्के मारे और कहा, दरवाजा खोलो। अल्बर्ट ने पीछे से पूछा, कौन है? उसने कहा, क्वीन आफ इग्लैंड, मैं हूँ इग्लैंड की महारानी। फिर पीछे से दरवाजा नहीं खुला। फिर वह दरवाजा ठोंकती रही, फिर पीछे से कोई उत्तर भी नहीं आया, कोई आवाज भी नहीं।

घड़ी भर बीत जाने के बाद उसने धीरे से कहा, अल्बर्ट, दरवाजा खोलो, मैं हूँ तुम्हारी पत्नी।

वह दरवाजा खुल गया। अल्बर्ट, मुस्कुराता हुआ सामने खड़ा था।

परमात्मा के द्वार पर हम जाते हैं-- ''मैं हूँ इग्लैंड की महारानी', दरवाजा खोलो। वह दरवाजा नहीं खुलने वाला है। यह ''मैं' जो है, इगो, इसके लिए कोई दरवाजा नहीं खुलता। दरवाजा खुलने के लिए लूमिलिटि चाहिए, विनम्रता चाहिए। और विनम्रता वही होती है, जहाँ ''मैं' नहीं होता है। और कोई विनम्रता नहीं होती।

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