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धर्म एवं दर्शन >> असंभव क्रांति

असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

एक मित्र ने पूछा है कि मैं आखिरी में कहता हूँ कि आप सबके भीतर परमात्मा के लिए प्रणाम करता हूँ। या कभी कहता हूँ कि परमात्मा करे तो मेरा मतलब क्या है?

मेरा मतलब किसी ऐसे परमात्मा से नहीं, जो ऊपर बैठा है और सब चला रहा है। मेरा मतलब सबके भीतर बैठी हुई, सोई हुई चेतना से है। उस चेतना को ही बुलाता हूँ। कोई दूर किसी परमात्मा को नहीं। वह जो आपके भीतर है और कण-कण में, पत्ते में, पत्थर में, सब में है।

और हमारे शब्द और हमारी भाषा सब असमर्थ है ऐसे तो उसके बाबत कुछ कहने में। लेकिन फिर कुछ इशारे अत्यंत जरूरी हैं। तो कोई नाम हम दे दें, परमात्मा कहें, सत्य कहें या कुछ भी कहें, कुछ भी कहें, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मोक्ष कहें, निर्वाण कहें, ब्रह्म कहें, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हमारे सब शब्द एक से असमर्थ हैं, उसे सूचित करने में। लेकिन शब्द के बिना कोई सूचना भी कठिन है।

तो इसीलिए निःशब्द में जाने का हम प्रयोग करते हैं, शब्द को छोड़ने का, ताकि वहाँ शायद उसका स्पर्श, उसका संस्पर्श हो सके।

एक अंतिम बात फिर हम रात्रि के ध्यान के लिए बैठेंगे।

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