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गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552

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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।

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‘‘इन योगिराज ने मेरे जन्म, मेरे माता-पिता, भाई-बहन सबका वृत्तान्त बताया। ये संस्कृत भाषा में बात करते थे, जिसे मैं भली-भाँति समझ लेता था।’’

‘‘मैंने जब अपने सम्बन्धियों के नाम और उनके विषय की बातें, योगिराज के मुख से सुनीं तो मैं उनका अनन्य भक्त हो गया। उन्होंने मुझको तीस वर्ष में जो कुछ भी बताया, सिखाया मुझमें जिस शक्ति का संचार कराया है, वह अवर्णनीय है। उस शक्ति के बल से मैं स्वयं को भली-भाँति समझ पाया हूँ। साथ ही अपने पूर्व-परिचितों को भी जान सका हूँ।’’

‘‘बस यही मेरा इतिहास है।’’ उसने बात समाप्त करते हुए कहा। मैं विस्मय में अपने साथी के मुख की ओर देखने लगा। वास्तव में इतना कुछ बताने पर भी उसने मुझे कुछ नहीं बताया था। मैं जब उसका मुख देख रहा था, वह अपनी मधुर मुस्कान से मेरी ओर देखते हुए उठ खड़ा हुआ और सोने की तैयारी करने लगा।’’

मैंने पूछा, ‘‘परन्तु श्रीमान्! आपको क्या बताया था, उन योगिराज ने?’’

‘‘उन्होंने तो कुछ नहीं बताया। मैंने अपने योग-बल से ही जाना है कि मैं ऋषि गवल्गण पुत्र संजय हूँ। मैंने पूर्ण महाभारत का युद्ध देखा है। मुझको यह विदित हुआ तब पहले तो मुझे विश्वास ही नहीं हुआ था, परन्तु अब तो मुझ में वह दिव्य स्मरण-शक्ति उत्पन्न हो गई है, जिसने न केवल अपने विषय में जान गया हूँ बल्कि अपने उस समय के संगी साथियों को भी पहचान लेता हूँ। आप भी मेरे उसी समय के परिचित हैं।’’

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