उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
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महाभारत तो मैंने भी पढ़ा था। परन्तु मैं इसको ‘अलिफ लैला’ का किस्सा ही समझता था। माणिकलालजी की व्याख्या से तो मेरे मन में भी प्रकाश होने लगा। यह मानकर भी कि यह इतिहास का ग्रन्थ उन अर्थों में, जिनमें आजकल इतिहास लिखा जाता है, न होते हुए भी यह कोई अर्थ एवं प्रयोजनहीन पुस्तक नहीं है। ययाति, शुक्राचार्य तथा वृषपव् का ऐसा दर्शन माणिकलाल ने कराया था कि मुझको कहानी में बहुत कुछ कल्पना का अंश दिखाई देते हुए भी सब अर्थयुक्त प्रतीत होने लगा था।
माणिकलाल की विवेचना-शक्ति अति विशद थी। उसके वर्णन में रस था और उसके कथन में प्रामाणिकता थी। मैं इससे बहुत प्रभावित हुआ था। माणिकलाल ब्रेकफास्ट के पश्चात विश्राम के लिए अपनी बर्थ पर जाकर लेट गया। मैं भी जाकर लेटा तो सो गया। पिछली रात मैं सो नहीं सका था। अतः लेटते ही खर्राटे भरने लगा।
एक बजे के करीब लंच के लिए हम डाइनिंग-कार में गये। माणिकलाल ने मुस्कराते हुए पूछा, ‘‘खूब सोये वैद्यजी!’’
‘‘हाँ, रात-भर मन में संशय भरे रहने के कारण मुझे नींद नहीं आयी थी, इसलिए अब लेटते ही सो गया था।’’
‘‘तो क्या अब संशय मिट गए हैं।’’
‘‘मिटे तो नहीं। मुझको विश्वास नहीं होता कि मैं ही किसी जन्म में युधिष्ठिर रहा हूँ। इस पर भी मैंने यह समझ लिया है कि उस जन्म में मैं चाहे कुछ भी रहा हूँ, वह आज विचार का विषय नहीं है। आप मुझको युधिष्ठिर कह दीजिए अथवा साक्षात् कृष्ण भगवान् का अवतार कहिये। इसका वर्तमान से तो कुछ भी सम्बन्ध नहीं है न? अतः आपके कथन से संशय हो अथवा विश्वास, किसी प्रकार भी यह बात अब विचारणीय नहीं हो सकती।’’
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