धर्म एवं दर्शन >> भक्तियोग भक्तियोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान
जब प्रह्लाद अपने आपको भूल गये, तो उनके लिए न तो सृष्टि रही और न उसका कारण रह गया केवल नाम-रूप से अविभक्त एक अनन्त तत्व। पर ज्यों ही उन्हें यह बोध हुआ कि मैं प्रह्लाद हूँ त्यों ही उनके सम्मुख जगत् और कल्याणमय अनन्त गुणागार जगदीश्वर प्रकाशित हो गये। यही अवस्था बड़भागी, नन्दनन्दन-गतप्राणा गोपियों की भी हुई थी। जब तक वे 'अहं' - ज्ञान से शून्य थीं, तब तक वे मानो कृष्ण ही हो गयी थीं। पर ज्यों ही वे कृष्ण को उपास्य-रूप में देखने लगीं, बस त्यों ही वे फिर से गोपी की गोपी हो गयी, और तब ''उनके सम्मुख पीताम्बरधारी, माल्याविभूषित, साक्षात् मन्मथ के भी मन को मथ देनेवाले मृदुहास्यरंजित कमलमुख श्रीकृष्ण प्रकट हो गये।''
तासाम् आविरभूत् शौरिः स्मयमानमुखाम्बुजः।
पीताम्बरधरः स्रग्वी साक्षात् मन्मथमन्मथ:।।
अब हम आचार्य शंकर की बात लें। वे कहते हैं, ''अच्छा, जो लोग सगुण ब्रह्मोपासना के बल से परमेश्वर के साथ एक हो जाते हैं, पर साथ ही जिनका मन अपना पृथक् अस्तित्व बनाये रखता है, उसका ऐश्वर्य ससीम होता है या असीम? यह संशय आने पर पूर्वपक्ष उपस्थित होता है कि उनका ऐश्वर्य असीम है, क्योंकि शास्त्रों का कथन है, 'उन्हें स्वाराज्य प्राप्त हो जाता है', 'सब देवता उनकी पूजा करते हैं', 'सारे लोकों में उनकी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं।' इसके उत्तर में व्यास कहते हैं, 'हाँ, जगत् की सृष्टि आदि की शक्ति को छोड़कर'। मुक्तात्मा को सृष्टि, स्थिति और प्रलय की शक्ति से अतिरिक्त अन्य सब अणिमादि शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं। रहा जगत् का नियन्तृत्व, वह तो केवल नित्यसिद्ध ईश्वर का होता है। कारण कि शास्त्रों में जहाँ जहाँ पर सृष्टि आदि की बात आयी है, उन सभी स्थानों में ईश्वर की ही बात कही गयी है। वहाँ पर मुक्तात्माओं का कोई प्रसंग नहीं है। जगत् के परिचालन में केवल उन्हीं परमेश्वर का हाथ है। सृष्टि आदि सम्बन्धी सारे श्लोक उन्हीं का निर्देश करते हैं। 'नित्यसिद्ध' विशेषण भी दिया गया है।
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