लोगों की राय

धर्म एवं दर्शन >> भक्तियोग

भक्तियोग

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :146
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9558

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

283 पाठक हैं

स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान


पहले कहा जा चुका है कि भक्ति दो प्रकार की होती है, 'गौणी' और 'परा'। 'गौणी' का अर्थ है साधन-भक्ति, अर्थात् जिसमें हम भक्ति को एक साधन के रूप में लेते हैं, और 'परा' इसी की परिपक्वावस्था है। क्रमश: हम समझ सकेंगे कि इस भक्तिमार्ग में अग्रसर होने के लिए साधनावस्था में कुछ बाह्य सहायता लिये बिना काम नहीं बनता। और वास्तव में सभी धर्मों के पौराणिक और रूपक भाग आप ही आ उपस्थित होते हैं तथा उन्नति-कामी आत्मा की प्रारम्भिक अवस्था मं  उसे ईश्वर की ओर बढ़ने में सहायता देते हैं। यह भी एक महत्त्वपूर्ण बात है कि बड़े-बड़े धर्मात्मा उन्हीं धर्म सम्प्रदायों में हुए हैं, जिनमें पौराणिक भावों और क्रिया-अनुष्ठानों की प्रचुरता है।

जो सब शुष्क, मतान्ध धर्म-प्रणालियाँ इस बात का प्रयत्न करती हंज कि जो कुछ कवित्वमय, सुन्दर और महान् है, जो कुछ भगवत्पाप्ति के मार्ग में गिरते-पड़ते अग्रसर होने वाले सुकुमार मन के लिए अवलम्बन स्वरूप है, उस सब को नष्ट कर डाले; जो धर्मप्रणालियाँ धर्म-प्रासाद के आधारस्वरूप स्तम्भों को ही ढहा देने का प्रयत्न करती हैं; जो सत्य के सम्बन्ध में अज्ञान और भ्रमपूर्ण धारणा लेकर इस बात की यत्नशील है कि जो कुछ जीवन के लिए संजीवनीस्वरूप है, जो कुछ मानवात्मारूपी क्षेत्र में लहलहाती हुई धर्म-लता के लिए पालक एवं पोषक है, वह सब नष्ट हो जाय - उन धर्म-प्रणालियों को यह शीघ्र अनुभव हो जाता है कि उनमें जो कुछ रह गया है, वह है केवल एक खोखलापन - अनन्त शब्दराशि और कोरे तर्क-वितर्कों का एक स्तूप मात्र, जिसमें शायद एक प्रकार की सामाजिक सफाई या तथाकथित सुधार की थोड़ीसी गन्ध भर बच रही है। जिनका धर्म इस प्रकार का है, उनमें से अधिकतर लोग जानते या न जानते हुए जड़वादी है; उनके ऐहिक व पारलौकिक जीवन का ध्येय केवल भोग है; वही उनकी दृष्टि में मानवजीवन का सर्वस्व है, वही उनका इष्टापूर्त है। मनुष्य के ऐहिक सुख-स्वाच्छन्द्य के लिए रास्ता साफ कर देना आदि कार्य ही उनके मत में मानवजीवन का सर्वस्व हैं।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book