धर्म एवं दर्शन >> भक्तियोग भक्तियोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान
भक्तियोग का एक बड़ा लाभ यह है कि वह हमारे चरम लक्ष्य (ईश्वर) की प्राप्ति का सब से सरल और स्वाभाविक मार्ग है। पर साथ ही उससे एक विशेष भय की आशंका यह है कि वह अपनी निम्न या गौणी अवस्था में मनुष्य को बहुधा भयानक मतान्ध और कट्टर बना देता है। हिन्दू इस्लाम या ईसाई धर्म में जहाँ कहीं इस प्रकार के धर्मान्ध व्यक्तियों का दल है, वह सदैव ऐसे ही निम्न श्रेणी के भक्तों द्वारा गठित हुआ है। वह इष्ट-निष्ठा, जिसके बिना यथार्थ प्रेम का विकास सम्भव नहीं, अक्सर दूसरे सब धर्मों की निन्दा का भी कारण बन जाती है। प्रत्येक धर्म और देश में जितने सब दुर्बल और अविकसित बुद्धिवाले मनुष्य हैं, वे अपने आदर्श से प्रेम करने का एक ही उपाय जानते हैं और वह है अन्य सभी आदर्शों को घृणा की दृष्टि से देखना। यहीं इस बात का उत्तर मिलता है कि वही मनुष्य, जो धर्म और ईश्वर सम्बन्धी अपने आदर्श में इतना अनुरक्त है, किसी दूसरे आदर्श को देखते ही या उस सम्बन्ध में कोई बात सुनते ही इतना खूँख्वार क्यों हो उठता है।
इस प्रकार का प्रेम कुछ-कुछ, दूसरों के हाथ से अपने स्वामी की सम्पत्ति की रक्षा करनेवाले एक कुत्ते की सहजप्रवृत्ति के समान है। पर हाँ, कुत्ते की वह सहज प्रेरणा मनुष्य की युक्ति से कहीं श्रेष्ठ है, क्योंकि वह कुत्ता कम से कम अपने स्वामी को शत्रु समझकर कभी भ्रमित तो नहीं होता - चाहे उसका स्वामी किसी भी वेष में उसके सामने क्यों न आये। फिर, मतान्ध व्यक्ति अपनी सारी विचार-शक्ति खो बैठता है। व्यक्तिगत विषयों की ओर उसकी इतनी अधिक नजर रहती है कि वह यह जानने का बिलकुल इच्छुक नहीं रह जाता है कि कोई व्यक्ति कहता क्या है - वह सही है या गलत; उसका एकमात्र ध्यान रहता है यह जानने में कि वह बात कहता कौन है।
देखोगे, जो व्यक्ति अपने सम्प्रदाय के - अपने मतवाले लोगों के प्रति दयालु है, भला और सच्चा है, सहानुभूति सम्पन्न है, वही अपने सम्प्रदाय से बाहर के लोगों के प्रति बुरा से बुरा काम करने में भी न हिचकेगा। पर यह आशंका भक्ति की केवल निम्नतर अवस्था में रहती है। इस अवस्था को 'गौणी' कहते हैं। परन्तु जब भक्ति परिपक्व होकर उस अवस्था को प्राप्त हो जाती है, जिसे हम 'परा' कहते हैं, तब इस प्रकार की भयानक मतान्धता और कट्टरता की फिर आशंका नहीं रह जाती। इस 'परा भक्ति से अभिभूत व्यक्ति प्रेमस्वरूप भगवान के इतने निकट पहुँच जाता है कि वह फिर दूसरों के प्रति घृणा-भाव के विस्तार का यन्त्रस्वरूप नहीं हो सकता। यह सम्भव नहीं कि इसी जीवन में हममें से प्रत्येक, सामंजस्य के साथ अपना चरित्रगठन कर सके; फिर भी हम जानते हैं कि जिस चरित्र में ज्ञान, भक्ति और योग - इन तीनों का सुन्दर सम्मिश्रण है, वही सर्वोत्तम कोटि का है।
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