धर्म एवं दर्शन >> भक्तियोग भक्तियोगस्वामी विवेकानन्द
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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान
इसी प्रकार 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' सूत्र की व्याख्या करते हुए भगवान रामानुज कहते हैं -
''एक पात्र से दूसरे पात्र में तेल डालने पर जिस प्रकार वह एक अखण्ड धारा में गिरता है, उसी प्रकार किसी ध्येय वस्तु के निरन्तर स्मरण को ध्यान कहते हैं।''
जब इस तरह की ध्यानावस्था ईश्वर के सम्बन्ध में प्राप्त हो जाती है, तो सारे बन्धन टूट जाते हैं।' इस प्रकार, शास्त्रों में इस निरन्तर स्मरण को मुक्ति का साधन बतलाया है। फिर, यह स्मृति दर्शन के ही समान है, क्योंकि उसका तात्पर्य इस शास्त्रोक्त वाक्य के तात्पर्य के ही सदृश है - 'उस पर और अवर (दूर और समीप) पुरुष के दर्शन से हदय-ग्रन्थियाँ छिन्न हो जाती हैं, समस्त संशयों का नाश हो जाता है और सारे कर्म क्षीण हो जाते हैं।' जो समीप है, उसके तो दर्शन हो सकते हैं, पर जो दूर है, उसका तो केवल स्मरण किया जा सकता है। फिर भी शास्त्रों का कथन है कि हमें तो उन्हें देखना है, जो समीप हैं और फिर दूर भी; और इस प्रकार शास्त्र हमें यह दर्शा दे रहे हैं कि उपर्युक्त प्रकार का स्मरण दर्शन के ही बराबर है। यह स्मृति प्रगाढ़ हो जाने पर दर्शन का रूप धारण कर लेती है।... शास्त्रों में प्रमुख स्थानों पर कहा है कि उपासना का अर्थ निरन्तर स्मरण ही है। और ज्ञान भी, जो असकृत् उपासना से अभिन्न है, निरन्तर स्मरण के अर्थ में ही वर्णित हुआ है।... अतएव श्रुतियों ने उस स्मृति को, जिसने प्रत्यक्ष अनुभूति का रूप धारण कर लिया है, मुक्ति का साधन बतलाया है।
'आत्मा की अनुभूति न तो नाना प्रकार की विद्याओं से हो सकती है, न बुद्धि से और न बारम्बार वेदाध्ययन से। जिसको यह आत्मा वरण करती है, वही इसकी प्राप्ति करता है। तथा उसी के सम्मुख आत्मा अपना स्वरूप प्रकट करती है।' यहाँ यह कहने के उपरान्त कि केवल श्रवण, मनन और निदिध्यासन से आत्मोपलब्धि नहीं होती, यह बताया गया है, 'जिसको यह आत्मा वरण करती है, उसी के द्वारा यह प्राप्त होती है।' जो अत्यन्त प्रिय है, उसी को वरण किया जाता है; जो इस आत्मा से अत्यन्त प्रेम करता है, वही आत्मा का सब से बड़ा प्रियपात्र है। यह प्रियपात्र जिससे आत्मा की प्राप्ति कर सके; उसके लिए स्वयं भगवान सहायता देते हैं; क्योंकि भगवान ने स्वयं कहा है, 'जो मुझमें सतत युक्त हैं और प्रीतिपूर्वक मेरा भजन करते हैं, उन्हें मैं ऐसा बुद्धियोग देता हूँ जिससे वे मुझे प्राप्त हो जाते हैं।' इसीलिए कहा गया है कि जिसे यह प्रत्यक्ष अनुभवात्मक स्मृति अत्यन्त प्रिय है, उसी को परमात्मा वरण करते हैं, वही परमात्मा की प्राप्ति करता है; क्योंकि जिनका स्मरण किया जाता है, उन परमात्मा को यह स्मृति अत्यन्त प्रिय है। यह निरन्तर स्मृति ही 'भक्ति' शब्द द्वारा अभिहित हुई है।''
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