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धर्म एवं दर्शन >> भक्तियोग

भक्तियोग

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :146
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9558

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स्वामीजी के भक्तियोग पर व्याख्यान


वेदान्तसूत्र के चतुर्थ अध्याय के चतुर्थ पाद में यह वर्णन करने के पश्चात् कि मुक्तिलाभ के उपरान्त मुक्तात्मा को एक प्रकार से अनन्त शक्ति और ज्ञान प्राप्त हो जाता है, व्यासदेव एक दूसरे सूत्र में कहते हैं, 'पर किसी को सृष्टि, स्थिति और प्रलय की शक्ति प्राप्त नहीं होगी', क्योंकि यह शक्ति केवल ईश्वर की ही है।*
जगद्व्यापारवर्जम् प्रकरणात् असन्निहितत्वात् च। - ब्रह्मसूत्र 4/4/17

इस सूत्र की व्याख्या करते समय द्वैतवादी भाष्यकारों के लिए यह दर्शाना सरल है कि परतन्त्र जीव के लिए ईश्वर की अनन्त शक्ति और पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त करना नितान्त असम्भव है। कट्टर द्वैतवादी भाष्यकार मध्वाचार्य ने वराहपुराण से एक श्लोक लेकर इस सूत्र की व्याख्या अपनी पूर्वपरिचित संक्षिप्त शैली से की है।

इसी सूत्र की व्याख्या करते हुए भाष्यकार रामानुज कहते हैं, ''ऐसा संशय उपस्थित होता है कि मुक्तात्मा को जो शक्ति प्राप्त होती है, उसमें क्या परम पुरुष की जगत्सृष्टि-आदि असाधारण शक्ति और सर्वनियन्तृत्व भी अन्तर्भूत हैं? या कि उसे यह शक्ति नहीं मिलती और उसका ऐश्वर्य केवल इतना ही रहता है कि उसे परम पुरुष के साक्षात् दर्शन भर हो जाते हैं? तो इस पर पूर्वपक्ष यह उपस्थित होता है कि मुक्तात्मा का जगन्नियन्तृत्व प्राप्त करना युक्तियुक्त है; क्योंकि शास्त्र का कथन है, 'वह शुद्धरूप होकर  (परम पुरुष के साथ) परम एकत्व प्राप्त कर लेता है' (मुण्डक उपनिषद् 3/1/3)।

अन्य स्थान पर यह भी कहा गया है कि उसकी समस्त वासना पूर्ण हो जाती है। अब बात यह है कि परम एकत्व और सारी वासनाओं की पूर्ति परम पुरुष की असाधारण शक्ति जगन्नियन्तृत्व बिना सम्भव नहीं। इसलिए जब हम यह कहते हैं कि उसकी सब वासनाओं की पूर्ति हो जाती है तथा उसे परम एकत्व प्राप्त हो जाता है, तो हमें यह मानना ही चाहिए कि उस मुक्तात्मा को जगन्नियन्तृत्व की शक्ति प्राप्त हो जाती है।

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