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उपन्यास >> कटी पतंग

कटी पतंग

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :427
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9582

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एक ऐसी लड़की की जिसे पहले तो उसके प्यार ने धोखा दिया और फिर नियति ने।


''पुरानी चीज़ों को यों छोड़ना अच्छा नहीं।''

''नहीं बाबूजी! जब तक हम उन्हें छोड़ेंगे नहीं, नई कैसे अपनाएंगे?''

आज बहू की बातों में अनोखापन था। बाबूजी यह देखकर चुप हो गए। उन्होंने उंगलियों से उस पश्मीने के रोएं को टटोला और फिर बहू की ओर देखकर बोले-''कितना ख्याल रहता है तुम्हें मेरा!''

''मुझे न हो तो कौन करेगा यह सब कुछ?'' उसने यह कहते हुए दुशाला लपेटा और बाबूजी के तकिये पर रख दिया। तभी उसकी नजरें सिरहाने की मेज पर रखी उस ऐश-ट्रे पर पड़ीं जिसमें सिगरेट के कई अधजले टुकड़े पड़े थे। जब उसने वह ऐश-ट्रे उठाई तो बाबूजी बोले-''रमिया को साफ करने के लिए दी थी, पगली यहीं रखकर चली गई।''

''कोई आया था क्या?''

''हां, बनवारी, तुम्हारी आंटी का रिश्तेदार!''

बनवारी का नाम सुनते ही उसके चेहरे की लाली अकस्मात् पीलिमा में बदल गई। आंखों की चमक मद्धिम पड़ गई। उसके मन की दशा लाला जगन्नाथ ने भांप ली।

बनवारी का नाम सुनते ही जैसे बिच्छू ने डंक मार दिया। उसने दबी आवाज में पूछा-''क्या कहने आया था?''

''हरिद्वार की जमीन का सौदा पक्का कर आया है। बकाया रकम चाहता है ताकि जमीन की रजिस्ट्री हो जाए।''

''आपने क्या कहा?''

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