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उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
तृतीय परिच्छेद
1
मिथिलापुरी को जाते हुए मार्ग में विश्वामित्र राम, लक्ष्मण और सिद्धाश्रम के मुनियों के साथ एक रात विशालापुरी में ठहरे थे। वहाँ के राजा सुमित से भेंट और परिचय प्राप्त कर विश्वामित्र मिथिलापुरी को चले तो मार्ग में महर्षि गौतम के आश्रम में जा पहुँचे। उस आश्रम का सौन्दर्य देख राम और लक्ष्मण मुग्ध हो गये। राम ने मुनि श्रेष्ठ से पूछा, ‘‘गुरुवर! यह आश्रम इतना सुन्दर है, परन्तु यह निर्जन क्यों पड़ा है? और यहाँ कोई नहीं रहता क्यों?’’
इस प्रश्न के उत्तर में ही महर्षि विश्वामित्र ने कहा था, ‘‘यह आश्रम महर्षि गौतम का है। किसी समय यहाँ चहल-पहल रहती थी। महर्षि के धर्म और ज्ञानयुक्त प्रवचन सुनने के लिये दूर-दूर से लोग आते थे। कोई-न-कोई नरेश यहाँ डेरा डाले रहता था। यह आजकल सूना पड़ा है। इस पर भी यहाँ एक प्राणी रहता है। वह महर्षि की अपनी पत्नी अहल्या है। महर्षि यहाँ नहीं आते। इस कारण अब यहाँ कोई नहीं आता।’’
‘‘और माताजी यहाँ अकेली क्यों रहती हैं?’’
‘‘वह पति से शापित हैं। बात यह हुई कि उन दिनों जब आश्रम में चहल-पहल रहती थी, एक दिन देवेन्द्र ऋषि के दर्शन करने आये। ऋषि कहीं गये हुए थे। इन्द्र ने ऋषि-पत्नी को देखा तो उस पर मोहित हो गये।
‘‘इन्द्रं के मन में पाप समा गया। इस पर आश्रमवासियों से बचने के लिये और ऋषि-पत्नी को किसी प्रकार के अपमान से बचाने के लिये वह वन में एकान्त स्थान पर गये और वहाँ से गौतम ऋषि का वेश बना आश्रम में चले आये। आश्रमवासियों ने उनको गौतम ऋषि ही समझा और जिस किसी ने भी उसे देखा, उन्हें ऋषि आदर और सत्कांर से हाथ जोड़ नमस्कार किया। इस प्रकार आश्रमवासियों से ऋषि समझा जाने पर आश्वस्त हो इन्द्र ऋषि की कुटिया में चला गया और ऋषि-पत्नी के सामने जा खड़ा हुआ। ऋषि-पत्नी उसे पहचान गयी और वह बोली, ‘राजन्! आपने यह छद्म वेश किसलिये बनाया है। और इस वेश में आप यहाँ किस कारण आये हैं?’
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