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उपन्यास >> परम्परा परम्परागुरुदत्त
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भगवान श्रीराम के जीवन की कुछ घटनाओं को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास
‘‘वह बोली, ‘युद्ध करते हुए मर जाने से जीव सीधा स्वर्ग को जाता है। परन्तु अपने परिवार को शून्य कर जायेगा तो पितृ-ऋण उतारे बिना संसार छोड़ने से स्वर्ग का द्वार ही बन्द हो जायेगा।’
‘‘मुझे माताजी की बात समझ आ गयी। मेरा अब ऐसा विचार है कि कोई शूद्र अथवा बनिया भले ही निस्सन्तान मर जाये, परन्तु क्षत्रिय की सन्तान का सूत्र तो चलना ही चाहिये। यदि एक वीर क्षत्रिय का परिवार शून्य होता है तो देश को भारी हानि होती है।’’
‘‘परन्तु मेजर साहब! वैश्य और शूद्रों के बच्चे भी तो मेजर बन सकते हैं।’’ अमृत ने कह दिया।
‘‘तो उनका भी निस्सन्तान मरना देश के लिये शुभ नहीं। वीरों की सन्तान देश की अमूल्य निधि है।’’
अमृत ने कह दिया, ‘‘परन्तु यह उपदेश तो गरिमा की बहन को देना चाहिये। मुझसे सुलह करने से इनकार तो वह कर रही है।’’
इस पर सुन्दरी ने कह दिया, ‘‘उसने इन्कार नहीं किया। उसने तो केवल यह कहा है कि माँ से भी छलना करने वाले व्यक्ति का विश्वास कौन करेगा? इसका अर्थ मैं यह समझी हूँ कि तुमको उसे समझाना चाहिये कि तुमने धोखा नहीं दिया।’’
कुलवन्तसिंह हँस पड़ा। हँसते हुए उसने कहा, ‘‘परन्तु यदि सत्य ही अमृतजी ने धोखा दिया हो तो क्या किया जाये?’’
‘‘क्यों अमृत! तुमने माँ को धोखा दिया था क्या? और दिया था तो किस कारण दिया था?’’ सुन्दरी ने कहा।
‘‘मैं विचार कर रहा हूँ कि माँ की पीठ के पीछे छुप कर उसके शयनागार में पहुँच जाऊँ।’’
‘‘बहुत दुष्ट हो अमृत! तुमने अपने जीवन से कुछ नहीं सीखा। अभी भी तुम्हारा धोखा-धड़ी का स्वभाव बदला नहीं।’’
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