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यादें

नवलपाल प्रभाकर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9607

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बचपन की यादें आती हैं चली जाती हैं पर इस कोरे दिल पर अमिट छाप छोड़ जाती हैं।



सांझ और सवेरा


काली सांझ, उजला सवेरा
लेकर फिर से आ गई ,
आज की सुबह तो जैसे
मन को मेरे ही भा गई।

आज का यह सुहाना दिन
मानो दिन, दिन न होकर
अजीब तोहफा है मेरे लिए
अरसों बाद मिला यह दिन
न जाऐगा जाम पिए बिन
भुला था मगर याद आ गई।
आज की सुबह तो जैसे
मन को मेरे ही भा गई।

हर मंजिल हर डगर पर
घुमता फिरता था मैं अकेला
जैसे पागलों की तरह
था मेरा जीवन अलबेला
मगर मुझे यह सांझ तो
नया जीवन दिला गई।
आज की सुबह तो जैसे
मन को मेरे ही भा गई।

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