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धर्म एवं दर्शन >> श्री दुर्गा सप्तशती

श्री दुर्गा सप्तशती

डॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :212
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9644

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श्री दुर्गा सप्तशती काव्य रूप में


सिसु ग्रह सान्त करत छन माहीं।
जुरत प्रीति जिन महं रन आहीं।।
दुराचार रत जे जन जग में।
छीजत सकल दोष तिन पल में।।
पाठ किए यह चरित निरन्तर।
मेटत भूत पिसाच निसाचर।।
चित दै पढ़ै चरित अति पावन।
मम पुर वास, मिलत मनभावन।।
उत्तम पुष्प दीप अरु धूपा।
अर्घ्य गंध पसु लाय अनूपा।।
विप्रहिं नित भोजन करवावै।
होम करे अभिषेक करावै।।
विविध भोग अर्पन अरु दाना।
करे बरिस भरि अस सनमाना।।
इतना किए मिलत फल जोई।
चण्डी चरित पाठ तें सोई।।
नासै रोग सुने जे चरिता।
चित दे सुने हरें सब दुरिता।।
मम अवतार चरित चित लावै।
सब भूतनि तें तुरत बचावे।।
मोर पराक्रम जो नित गावै।
त्राण दुष्ट दैत्यनि ते पावै।।
चरित स्रवन जे जन अवराधा।
कबहुं न मिलत सत्रु सन बाधा।।

सुनहु देवगन अस्तुति, जस तुम बिधि मुनि कीन।
सुभदा वरदा बुद्धिदा, पढ़त सुजन मन लीन।।५।।

बिपिन मध्य अथवा पथ सूना।
दावानल थल लोग विहूना।।
घिरा दस्युदल वा रिपु बस में।
सिंह बाघ गज घेरत वन में।।
कुपित नृपति कर हो आदेसा।
वध बंधन अरु अपर कलेसा।।
सागर महं हो नाव सवारा।
आंधी चले डूबि मंझधारा।।
रन महं लरत सस्त्र आघाता।
पीरा तें तरफत सब गाता।।
बाधा व्याधि उपाधि अनेकन।
नाना भांति त्रास पावत जन।।
सुमिरन करत चरित यह जब जन।
संकट सकल बिनासत तेहिं छन।।

कह - मुनीस मां चण्डिका, एहिं विधि दै बरदान।
देखत-देखत सुरन के, भईं सुअन्तरधान।।६।।

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