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धर्म एवं दर्शन >> श्री दुर्गा सप्तशती

श्री दुर्गा सप्तशती

डॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :212
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9644

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श्री दुर्गा सप्तशती काव्य रूप में


छूटत नाहिं प्रेम कर बंधन।
मिलत छोर नहिं यह नृपनन्दन।।
विलपत कलपत रहउं नरेसा।
मोह तजे मोहि मिलत कलेसा।।
मार्कण्ड मुनि कहेउ बहोरी।
उभय चले मेधा मुनि ओरी।।
बनिक नृपति मुनि पद सिर नावा।
चरित सुनन हित सुमति दिढ़ावा।।
सुनहु मुनीस कहत नरनाहा।
भेद एक मैं जानन चाहा।।
मन चंचल अति वस महं नाहीं।
बार-बार मम मति अकुलाहीं।।
सकल राज सुख सम्पति खोई।
तदपि मोह मति रहति विगोई।।
जानत जग कछु नाहिं हमारा।
जड़ जिमि मिटत न मोह अपारा।।


सुत, कलत्र अरु भृत्यगन कीन्हेंउ अति अपमान।
तदपि बनिक यह मोह बस, नहिं सुहात कछु आन।।६।।

उभय हृदय यह अति सन्देहा।
नहिं मन तें निसरत पुर गेहा।।
जानत विषय दोष कै खानी।
ममता विरति न उर महं आनी।।
कहत मुनीस सुनहु महिपाला।
विषय ज्ञान सब कहं सब काला।।
नाना विषय भोग संसारा।
जीव भेद रस भेद अपारा।।
दिन कछु नहिं देखत कछु राता।
कछु सम निसि दिनि एकहि बाता।।
विषयी लम्पट मिलत न ज्ञाना।
विषयहीन कहुं नहिं अज्ञाना।।
समदरसी जन सोइ कहावत।
सुख-दुख लाभ-हानि सम पावत।।
जाहि कहत तुम ज्ञान नरेसा।
सब जीवनि उर करत प्रवेसा।।


खग-मृग, नर, चर अरु अचर विषय ज्ञान सब माहिं।
रस भोगी जगजीव सब या कहं जग पतियाहिं।।७।।

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