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धर्म एवं दर्शन >> श्री दुर्गा सप्तशती

श्री दुर्गा सप्तशती

डॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :212
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9644

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श्री दुर्गा सप्तशती काव्य रूप में


तदपि मातु महिषासुर क्रोधा।
जननि असुर कत कीन्ह विरोधा।।
तुम पर कीन्ह प्रहार अरम्भा।
यह सुनि माता होत अचम्भा।।
जब तुम कोप कियो जग जननी।
उदित इन्दु जिमि मुख छबि बरनी।।
अरुन बरन भृकुटी विकराला।
क्रोधवन्त ठाढ़ा मनु काला।।
देखि रूप नहिं मरा सुरारी।
मन महं होत आचरज भारी।।
होहु प्रसन्न देहु वरदाना।
परमेस्वरि करि जग कल्याना।।
जन सरसत हरषत महरानी।
कोपति लोपति मातु भवानी।।

महिष सेन संहार लखि उपजा उर बिस्वास।
मातु कृपा जापर करति, ताकर होत विकास।।५।।

जग महं होत तासु सनमाना।
देति सुयस, सम्पति वरदाना।।
धन्य धर्मरत जीवन ताकर।
हृष्ट पुष्ट सुत दारा चाकर।।
सोइ सुकृती सोई सतकर्मी।
तव पद रति राखत जो धरमी।।
तुम्हरी कृपा मिलत कविलासा।
मन वांछित पावत सहुलासा।।
दुर्गा दुर्गा सुमिरन करहीं।
छन महं भय सब माता हरिहीं।।
निर्मल मन जन जो तोहि ध्यावै।
सुभकारिनि मति सोइ नर पावै।।
तुम समान नहिं जग हितकारिनि।
दुख दरिद्रता अरु भयहारिनि।।

अतिसय करुना जगत पर, करति राखि उर प्रीति।
सब कर हित तब उर बसत, पालत नित स्रुति रीति।।६।।

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