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जीवनी/आत्मकथा >> क्रांति का देवता चन्द्रशेखर आजाद

क्रांति का देवता चन्द्रशेखर आजाद

जगन्नाथ मिश्रा

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :147
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9688

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स्वतंत्रता संग्राम सेनानी चंद्रशेखर आजाद की सरल जीवनी

''किन्तु उसने किसी से दबकर काम करना तो अपने बचपन से ही नहीं सीखा। शरीर के कष्टों को वह कोई कष्ट समझता ही नहीं है। उसे बेंतों को सजा मिलने की खबर जब हमें गाँव में मिली थी तो मैंने और उसके पिताजी ने कई रोज तक खाना नहीं खाया था। वे तो तुरन्त ही दौड़कर काशी पडुंचे, चन्द्रशेखर से मिले, उसे वहुत समझाया किन्तु वह नहीं माना।''

''हम दोनों के मन में एक बडी साध थी, चन्द्रशेखर का विवाह करें, घर में बहू आये, पोते का मुंह देखने को मिले। लेकिन उसने हमारी सभी आशाओं पर पानी फेर दिया।''

''मैं जब कभी इन बातों को याद करके रोती थी, तो उसके पिता जी मुझे बहुत समझाया करते थे- 'रोने की कोई बात नहीं है, तुमने तो शेर को जन्म दिया है। आज सारा देश तुम्हारे लाड़ले की प्रशंसा कर रहा है। उनकी बातें और प्रशंसा सुनकर मेरा सिर गर्ब से ऊँचा हो जाता है।'

''मैं जानती हं, उनकी वह सब बातें केवल मुझे समझाने के लिए थीं। सच तो यह है, वह भी अपनी मुराद पूरी न होते देखकर भीतर ही भीतर घुल रहे थे। इसीलिए शायद वह संसार से शीघ्र ही विदा भी हो गए। मैं न जाने क्या देखने के लिए ही जी रही हूँ?''

''माँ. माँ, मैं आ गया।''

'अरे यह आवाज तो चन्द्रशेखर की ही है।'' देखा तो सचमुच वही आँगन में खड़ा-खड़ा मुस्करा रहा था। उसने आगे बढकर माँ के चरण छुए।

''इतने दिन कहाँ रहा, बेटा? मैं तो तेरा इन्तजार करते-करते मर मिटी।''

''माँ, मैं कही भी रहूं, तेरे आशीर्वाद से ठीक ही रहूंगा।''

 ''यह तो ठीक है, पर तूने तो इतने दिनों तक अपनी माँ की कोई खबर न ली।''

''अच्छा यह बात तो फिर होगी। पहले कुछ खाने को दे माँ। बड़ी जोर की भूख लग रही है।''

''मैंने तेरे लिये न जाने कितनी बार पेड़े लाकर रखे हैं, अब भी कल ही रामू हलवाई की दूकान से ताजा पेड़े लेकर आई थी वह रखे हैं, अभी लाती हूँ।''

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