उपन्यास >> देहाती समाज देहाती समाजशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास
रमा ने इस बात का लक्ष्मी को तो कोई उत्तर दिया नहीं, वेणी की ओर उन्मुख हो बोली-'यह क्या बात है, बड़े भैया? जरा साफ-साफ बताओ न!' वह एकटक प्रश्नाबत्मक नेत्रों से उनकी ओर देखती रही। मानो उसके नेत्र, वेणी के अंतर में भीतर तक आर-पार हो कर उसके दिल को टटोलना चाहते हों।
वेणी ने व्यग्र हो कर कहा-'मैं तो कुछ जानता नहीं बहन! ये लोग ही ऐसी न जाने क्या-क्या लगाते फिरते हैं। उन पर ध्यान मत दो।'
'पर कहते क्या हैं ये लोग?'
वेणी ने अन्यमनस्क हो कर कहा-'कहते फिरें, उनके कहने भर से ही तो किसी की दोष लग नहीं जाएगा!'
रमा ने यह अनुभव किया कि वेणी की वह बातें कोरी बनावटी सहानुभूति मात्र हैं। थोड़ी देर चुप रह कर उसने कहा-'तुम्हें तो किसी बात के कहने से दोष नहीं लगता, लेकिन सब तो तुम्हारी तरह से हैं नहीं! लेकिन कहता कौन है, लोगों से यह सब बातें तुम?'
'मैं?'
रमा भीतर-ही-भीतर मारे गुस्से के सुलग रही थी। लेकिन ऊपर से बड़ी कोशिशों से अपने को संयत बनाए रही। आवेश में वह अब भी न आई, बोली-'हाँ, तुम्हीं कहते हो! तुम्हारे अलावा और कोई नहीं कह सकता! भला दुनिया में ऐसा कोई काम है, जिसे तुम न कर सकते हो? चोरी, जालसाजी, आग, फौजदारी आदि सभी तो हो चुके हैं, अब इसी की कसर क्यों रह जाए?'
वेणी सकते में रह गए। उनके मुँह से एक शब्द भी न निकल सका।
'तुम नहीं समझ सकते कि एक स्त्री के लिए उसके चरित्र पर दोष ही उसका सर्वनाश है! पर जानना तो मैं भी यही चाहती हूँ कि भला इसमें तुम्हारा क्या लाभ है मेरी बदनामी करने में?'
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