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उपन्यास >> देहाती समाज

देहाती समाज

शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :245
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9689

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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास


'घर पर उस समय कोई भी नहीं था?'

'सभी लोग तो थे, पर वह तो जेल जाने की तय करके आया था, तभी उसने आदमियों के बीच मारा! उसने कोई अपनी दुश्मनी के कारण तो उसे मारा नहीं था। जब वेणी बाँक के एक ही वार से बेहोश हो कर जमीन पर गिर पड़ा, तो वह रुक गया, दूसरा हाथ नहीं उठाया उसने! और जाते-जाते कह गया कि अगर अब भी उनकी अकल दुरुस्त न हुई, तो मैं चाहे जब लौटूँ, पर इनकी अकल फिर जरूर ही दुरुस्त की जाएगी!'

रमा ने अस्फुट स्वर में कहा-'भैया के पीछे अभी और भी आदमी घात लगाए हैं, इसके मानी हैं कि पहले तो उन नीच कौम के लोगों में इतनी हिम्मत कभी आई नहीं थी! अब कहाँ से आ गई?'

विश्वेनश्वहरी ने मुस्कराते हुए कहा-'किसने इनकी हिम्मत बुलंद की, तुम नहीं जानतीं क्या बेटी? लगी आग बुझते-बुझते भी आस-पास को झुलसा जाती है! मेरा बेटा रमेश जुग-जुग जिए। और अब छूट कर जहाँ जी में आए चला जाए। वेणी के लिए तो मैं कभी आह न भरूँगी!'

कहते-कहते विश्वेकश्वेरी ने अपने गले से निकलती एक आह को जबरदस्ती दबाया, तो रमा की आँखों से छिपा न रहा। उसका हाथ अपनी छाती पर रख कर वह पड़ी रही।

विश्वेाश्वररी ने अपने को संयत कर फिर कहा-'बेटे के लिए माँ का दर्द अभी तुम नहीं जानतीं! जब वेणी को घायल अवस्था में बैठा कर लोग अस्पताल ले गए, तब मेरे दिल पर जो बीती, वह मैं ही जानती हूँ। पर किसी को दोष देने और कोसने की तबीयत मेरी न हुई, बेटी! मैं जानती थी कि माँ होने के कारण मैं चाहे जितना भी दु:ख क्यों न करूँ, पर उसके कुकर्मों के लिए दण्ड तो मिलना ही था!'

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