उपन्यास >> देहाती समाज देहाती समाजशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास
रमेश ने इसका कोई भी उत्तर नहीं दिया। एक लंबी-सी, ठण्डी आह उसके अंदर से फूट निकली। थोड़ी देर बाद, अस्फुट स्वर में वह बोला-'जहाँ तक मुझे याद पड़ता है, वहाँ तक तो मुझे कोई ऐसी बात याद नहीं पड़ती! आज तो मेरा-तुम्हारा कोई नाता नहीं, बल्कि यों कहूँ तो अधिक सत्य होगा कि मैं तुम्हारे रास्ते का एक रोड़ा हूँ। फिर भी आज जितनी खातिर तुमने मेरी की है, उतनी खातिर जिसे रोज मिले, वह दूसरों के दु:ख और उनकी व्यथा देख, पागल हो कर इधर-उधर दौड़े बिना नहीं रह सकता! मैं अभी पड़ा-पड़ा यही सोच रहा था। किंतु तुमने जरा-सी देर में ही, मेरे जीवन-स्रोत में नवीनता की एक उमंग भर दी है। जीवन में यह पहला अवसर है, जब किसी ने मुझे इतने प्रेम और आदर के साथ अपने पास बैठा कर खिलाया है। और वह तुम हो, रमा! आज जीवन में पहली बार, तुम्हारे हाथ और प्रेम से परोसा खाना खा कर यह ज्ञात हुआ कि भोजन में भी महान आनंद है!'
रमा सुन-सुन कर मारे लज्जा के सिहर उठी। उसका सारा चेहरा आरक्त हो उठा। अपने को संयत कर उसने कहा-'लेकिन इसे भी आप थोड़े दिनों में भूल जाएँगे; और फिर कभी याद भी आएगा, तो यों ही मामूली तौर पर!'
रमेश ने इसका कोई जवाब नहीं दिया। रमा ने ही फिर कहा-'मैं अपना अहोभाग्य समझूँगी, अगर आप घर जा कर मेरी निंदा न करें!'
रमेश ने एक ठण्डी आह भर कर कहा-'न मैं इसकी तारीफ करूँगा, न निंदा ही! मेरा आज का दिन तो इन दोनों से परे है!'
रमा निरुत्तर रही; थोड़ी देर तक दोनों ही चुपचाप बैठे रहे। बाद में रमा वहाँ से उठ कर कमरे में चली गई, जहाँ उसकी आँखों से आँसू की बड़ी-बड़ी बूँदें टपकने लगीं।
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