उपन्यास >> देहाती समाज देहाती समाजशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास
'कहीं किताबों में ही हरदम आँखें गड़ाए रहने से जमींदारी चली है! यह मुकर्जी की लड़की भी इन सब बातों को सुन, खूब मखौल उड़ाती है और उसी दिन उसने गोविंद को बुला कर खिल्ली उड़ाते हुए ही कहा था, कि रमेश बाबू को तो चाहिए कि वे अपनी सारी जमींदारी हमें दे दें, और अपना महीने का खर्चा लिए जाएँ। भला आचार्य जी! एक औरत इस तरह एक पुरुष की खिल्ली उड़ाए? इससे अधिक शर्म की बात और क्या हो सकती है?' यह कह, सरकार महाशय मुँह लटका कर, फिर कलम कान पर से हटा कर घिसने लगे।
घर में स्त्री न होने के कारण सब खुला चौपट्ट मैदान था। भैरव धड़धड़ाते अंदर पहुँच गए। रमेश एक बरामदे में, एक टूटी-सी आराम कुर्सी पर लेटे पुस्तकावलोकन कर रहा था। भैरव ने पहले तो उन्हें जमींदारी की रक्षा तथा उसे चलाने के लिए उनके कर्तव्यों का एक लेक्चर पिला कर, अपने फर्ज को निभाने के लिए उत्तेजित किया और तब असल मकसदवाली बात कही। सुनते ही रमेश गरज कर कुर्सी से उछल पड़ा-'भजुआ! रोज की ये चालाकियाँ यों चलती रहेंगी क्या?'
उनके उस अग्र रूप को देख कर भैरव भी सिहर उठे और उनकी समझ में ही न आया कि चालाकियों से रमेश का इशारा किस तरफ है।
भजुआ का शहर गोरखपुर था। लाठी खूब भाँजता था और शरीर भी काफी बलवान था। लाठी में रमेश को वह गुरु मानता था, अपना नाम सुनते ही वह रमेश के सम्मुख आ उपस्थित हुआ।
उसे आता देख रमेश ने आज्ञा दी कि जा कर सारी मछलियाँ बीन लो। अगर कोई रोकने की गुस्ताखी करे, तो उसे घसीट कर मेरे सामने ले आओ, और नहीं तो उसके दाँत तो तोड़ ही आना!
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