उपन्यास >> देहाती समाज देहाती समाजशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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ग्रामीण जीवन पर आधारित उपन्यास
'पर मैं उन्हें फूटी आँख भी नहीं सुहाता।'
'तुम्हें अपना ही समझने की तमीज इनमें होती, तो फिर क्या बात थी? क्या अब भी तुम्हारी समझ में नहीं आता कि ये इस काबिल भी नहीं हैं कि इन पर तुम गुस्सा भी दिखा सको। और यही गाँव ऐसा हो, सो बात नहीं-यहाँ तो सभी गाँवों की यही दशा है, बेटा!' फिर सहसा रमा की तरफ नजर डाल कर बोलीं-'अरे वाह बेटी, तुम तो बस सिर गड़ाकर ही बैठी हो, जैसे कोई मूर्ति हो! तुम दोनों भाई-बहनों में बोलचाल नहीं है क्या, रमेश?...नहीं, नहीं! ऐसा नहीं होना चाहिए, बेटी! बाप के साथ झगड़ा था, सो उन्हीं के साथ चला भी गया वह, अब उसे भूल जाना चाहिए!'
रमा ने उसी तरह से सिर झुका, आहिस्ता से कहा-'मेरे मन में तो कोई मैल नहीं, ताई जी! रमेश भैया...।'
तभी रमेश कर्कश स्वर में बोल उठा और रमा का नम्र स्वर खो गया-'तुम इस मामले में दखल मत दो, ताई जी! अभी इनकी मौसी से जाने कैसे जान बची है; और यदि आज फिर इन्हें भेज दिया, जो बिना कच्चा खाए न छोड़ेंगी!' और बिना किसी उत्तर की प्रतीक्षा किए वे बाहर चले गए।
'अरे, एक बात तो सुनता जा, बेटा! जरा रुक तो सही!'
रमेश ने दरवाजे के बाहर ही रुक कर कहा-'ताई जी! मारे घमंड के जो तुम्हारे सिर पर चढ़ कर बोलना चाहते हैं, उनकी तरफदारी मत करो!' और जब तक विश्वेाश्वीरी फिर कुछ कहें, वह वहाँ से जल्दी-जल्दी चला गया।
रमा बिलख पड़ी और विश्वेजश्वररी की तरफ भरी आँखों से देख कर बोली -'मैं तो मौसी को सिखा कर भेजती नहीं ताई जी! फिर मेरे माथे पर यह दोष क्यों? क्यों इसके लिए मुझे जिम्मेदार ठहराया, कलंक थोपा गया मेरे ऊपर?'
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