उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
यह कहकर वह बगल के दूसरे कमरे में चली गयी। देवदास की जब नींद टूटी तो दिन चढ़ गया था। घर में कोई नहीं था। चन्द्रमुखी स्नान करके भोजन पकाने की तैयारी में थी। देवदास ने चारों ओर आश्चर्य से देखा कि इस स्थान में वे कभी नहीं आये थे, एक चीज भी नहीं पहचान सके। पिछली रात की एक बात भी याद नहीं आती थी; केवल किसी की आन्तरिक सेवा का कुछ-कुछ स्मरण आता था। किसी ने मानो बड़े स्नेह के साथ लाकर सुला दिया। इसी समय चन्द्रमुखी ने घर में प्रवेश किया। रात की सज-धज में इस समय बहुत कुछ परिवर्तन हो गया था। शरीर पर गहने तो अब भी वे ही थे। किन्तु रंगीन साड़ी, माथे का टीका, मुख में पान का दल आदि कुछ भी नहीं थे। केवल एक धोई हुई श्वेत साड़ी पहने हुए वह घर में आयी। देवदास चन्द्रमुखी को देखकर खिल उठे, बोले - 'कहां से कल मुझे यहां बुला ले आयीं?' चन्द्रमुखी ने कहा-'बुला नहीं लायी, रास्ते में तुम्हें पड़ा हुआ देखकर उठा ले आयी।'
देवदास ने कुछ गम्भीर होकर कहा-'अच्छा, यह तो हुआ सो हुआ, पर तुम्हें यहां कैसे पाता हूं? तुम कब आयीं? तुम तो गहना नहीं पहनती थी, फिर कैसे पहनने लगीं?'
चन्द्रमुखी ने देवदास के मुख पर एक तीव्र दृष्टि डालकर कहा-'फिर से...!'
देवदास ने हंसकर कहा-'नहीं-नहीं, यह हो नहीं सकता; ऐसी हंसी करने में भी दोष है। आयी कब?'
चन्द्रमुखी ने कहा-'डेढ़ महीना हुआ।'
देवदास ने मन-ही-मन कुछ हिसाब लगाया, फिर कहा-'मेरे मकान से लौटने के बाद ही यहां पर आयी?' चन्द्रमुखी ने विस्मित होकर कहा-'तुम्हारे घर पर मेरे जाने की खबर तुम्हें कैसे मिली?'
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