उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
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कुछ दिन रहने के बाद उन्होंने एक दिन धर्मदास से कहा-'धर्म, किसी नयी जगह नहीं चलोगे? अभी तक बम्बई नहीं देखी, वहां चलोगे?'
उनका अतिशय आग्रह देखकर इच्छा न रहते हुए भी धर्मदास बम्बई चलने को तैयार है....
यहां आकर देवदास को बहुत कुछ आराम मिला। एक दिन धर्मदास ने कहा-'यहां रहते बहुत दिन हो गये, अब घर चलना अच्छा होगा।'
देवदास ने कहा-'नहीं, यहां अच्छी तरह हूं। अभी कुछ दिन यहां और रहूंगा।'
एक वर्ष बीत गया। भादों का महीना था। एक दिन प्रातःकाल देवदास धर्मदास के कन्धे के सहारे से बम्बई-अस्पताल से बाहर आकर गाड़ी में बैठे। धर्मदास ने कहा-'देवता, मेरी सलाह से इस समय मां के पास चलना अच्छा होगा।'
देवदास की दोनों आंखें डबडबा आयीं। आज कई दिन से वे भी मां को स्मरण कर रहे थे। अस्पताल में पड़े-पड़े वे जब-तब यही सोचते थे कि इस संसार में उनके सभी हैं और कोई भी नहीं है। उनके मां है, बड़ा भाई है, बहिन से बढ़कर पार्वती है, चन्द्रमुखी भी है। उनके सभी हैं, पर वे किसी के नहीं हैं।
धर्मदास रोने लगा, कहा-'भाई, इससे अच्छा है कि मां के पास चलो।'
देवदास ने मंह फेरकर आंसू पोछकर कहा-'नहीं धर्मदास, मां को मुंह दिखाने लायक नहीं हूं। जान पड़ता है, अभी मेरा समय नहीं आया।'
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