उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
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पार्वती के पिता कल रात घर लौटे। इधर कई दिनों से वह वर ढूंढ़ने गये थे। अब विवाह की सब बातचीत पक्की करके घर लौटे हैं। प्राय: बीस-पच्चीस कोस की दूरी पर बर्दवान जिला के हाथीपोता गांव के जमीदार के साथ विवाह का होना स्थिर कर आये हैं। उसकी आर्थिक दशा अच्छी है, उम्र चालीस वर्ष से कुछ कम ही है। गत वर्ष पहली स्त्री का स्वर्गवास हुआ है, इसीलिए दूसरा विवाह कर रहे हैं। इस समाचार से कुटम्बियों में किसी को आनन्द नहीं हआ, वरन् दुख ही पहुंचा। फिर भी भुवन चौधरी से सब मिलाकर दो-तीन हजार रुपये की प्राप्ति थी, इसी से सब स्त्रियां चुप हो रहीं। एक दिन दोपहर के समय जब देवदास चौके में भोजन करने को बैठा, तो मां ने पास बैठकर कहा- 'पारो का विवाह है।'
देवदास ने मुंह उठाकर पूछा-'कब? '
'इसी महीने में। कल वर खुद आकर कन्या को देख गया है।'
देवदास ने कुछ विस्मित होकर कहा-'क्या, मैं तो कुछ नहीं जानता मां!'
'तुम कैसे जानोगे? वर दुहेजू है - अवस्था कुछ अधिक है, पर घर का धनी है। पारो खाने -पीने से सुखी रहेगी।'
देवदास गर्दन नीची कर भोजन करने लगा। उसकी मां ने फिर कहना आरम्भ किया-'उन लोगों की इच्छा थी कि इसी घर में ब्याह हो।'
देवदास ने मुंह उठाकर कहा-'फिर?'
मां ने कहा-'छि:! ऐसा कभी हो सकता है? एक तो वे लोग कन्या बेचने-खरीदने वाले, दूसरे, घर के पडोस में; फिर ऐसे छोटे घराने में! छिः छि!' यह कहकर मां ने ओंठ सिकोड़ा।
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