उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
पार्वती ने हंसकर कहा-'मनो बहिन, तुम झूठ ही माथे में सिन्दूर पहनती हो। यह भी नहीं जानती कि किसको स्वामी कहते हैं। वे मेरे स्वामी न होने पर भी मेरी लज्जा के स्वामी हैं। उनसे ऐसा करने के पहले ही मैं मर न जाऊंगी! इसे छोड़, जो मनुष्य मरने पर उतारू है, क्या वह यह देखता है कि विष कडुवा है या मीठा। उनसे मेरा कोई भी परदा नहीं है।'
मनोरमा उसके मुंह की ओर देखती रही। कुछ देर बाद पूछा-'उनसे क्या कहोगी? यह कहोगी कि मुझे अपने चरणों में स्थान दो?
पार्वती ने सिर हिलाकर कहा-'ठीक यही कहूंगी, बहिन?'
'और यदि वे स्थान न दें?'
इसके बाद पार्वती कुछ देर तक चुप रही, फिर कहा-'उस समय की बात नहीं जानती।'
घर लौटते समय मनोरमा ने मन-ही-मन सोचा, धन्य साहस, धन्य हृदय-बल! यदि मैं मर भी जाऊं तो भी यह बात मुंह से कभी निकाल नहीं सकती।
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