उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
पार्वती लौट आयी, किन्तु फिर भी देवदास ने कोई बात नहीं कही, यह देख वह लौट गयी। देवदास निस्तब्ध बैठे रहे, थोड़ी देर बाद उन्होंने फिर देखा, पार्वती जल लेकर जाने की तैयारी कर रही है। यह देख वह बंसी हटाकर घाट के ऊपर आ खड़े हुए - 'मैं आया हूं।' पार्वती ने केवल घड़ा रख दिया, कुछ बोली नहीं।
पार्वती कुछ देर तक चुपचाप खड़ी रही, अंत में अत्यन्त मीठे स्वर से पूछा- 'क्यों?'
'तुमने लिखा नहीं था?'
'नहीं।'
'यह क्या पारो! उस रात की बात भूल गयी?'
'नहीं; किन्तु उस बात से अब काम ही क्या?'
उसका कंठ-स्वर स्थिर किन्तु रूखा था। देवदास उसका मर्म नहीं जान सके, कहा- 'मुझे क्षमा करो, मैं तब इतना नहीं समझ सका था।'
'चुप रहो, ये सब बातें मुझे नहीं सुहाती।'
'मैं जिस तरह से होगा, मां-बाप को राजी करूंगा। सिर्फ तुम...!'
पार्वती ने देवदास के मुंह की ओर एक बार तीखी नजर से देखकर कहा- 'तुम्हारे ही मां-बाप हैं, मेरे नहीं? क्या उनकी इच्छा-अनिच्छा से मुझे कोई प्रयोजन नहीं है?'
देवदास ने लज्जित होकर कहा- 'क्यों नहीं है पारो, पर वे लोग तो राजी हैं, सिर्फ तुम...!'
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