उपन्यास >> देवदास देवदासशरत चन्द्र चट्टोपाध्याय
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कालजयी प्रेम कथा
देवदास ने बात समाप्त नहीं होने दी, बीच में ही कह उठे- 'पांव की धूल की बात नहीं रुपया लेती हो?'
'उसके न लेने से हम लोगों का काम कैसे चलेगा?'
'बस-यही सुनना चाहता हूं।' यह कहकर उन्होंने पॉकेट से एक नोट निकाला और चन्द्रमुखी के हाथ में देकर चलने की तैयारी की। एक बार देखा भी नहीं कि कितना रुपया दिया?
चन्द्रमुखी ने विनीत भाव से कहा- 'इतनी जल्दी जायेंगे?' देवदास ने कुछ नहीं कहा, बरामदे में आकर चुपचाप खड़े हो गये।
चन्द्रमुखी की एक बार इच्छा हुई कि रुपया लौटा दे, किन्तु किसी तीव्र संकोच के कारण लौटा न सकी। सम्भवत: उसे कुछ डर भी मालूम हुआ था। इसे छोड़ उसे अनेकों लांछना, भर्त्सना और अपमान सहने का अभ्यास है, इसीलिए निर्वाक्, निस्पन्द चौखट के ऊपर खड़ी रही। देवदास सीढ़ी से नीचे उतर गये। सीढ़ी पर ही चुन्नीलाल से भेंट हुई। उन्होंने आश्वर्य से पूछा- 'कहां जाते हो?'
'बासे को जाता हूं।'
'यह क्यों?' देवदास और दो-तीन सीढ़ी उतर गये।
चुन्नीलाल ने कहा- 'मैं भी चलता हूं।' देवदास के पास आकर उनका हाथ पकड़कर कहा- 'चलो, थोड़ा यहीं पर खड़े रहो, मैं ऊपर से होकर अभी आता हूं।'
'नहीं, मैं जाता हूं, तुम फिर आना।' - यह कहकर देवदास चले गये। चुन्नीलाल ने ऊपर आकर देखा, चन्द्रमुखी तब भी उसी भांति चौखट पर खड़ी है। उसे देखकर पूछा- 'वह चले गये?'
'हां।' चन्द्रमुखी ने हाथ का नोट दिखाकर कहा- 'यह देखो, अच्छा होगा इसे ले जाओ, अपने मित्र को लौटा दो।'
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