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गायत्री और यज्ञोपवीत

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :67
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9695

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यज्ञोपवीत का भारतीय धर्म में सर्वोपरि स्थान है।


आचार्य  उपनयमानो  ब्रह्मचारिणं  कृणुते गर्भमन्त:।
त रात्रीस्तिस्त्र उदरे बिभर्ति तं जात द्रष्टुमभिसंयन्ति देवा:।।

- अथर्ववेद 11/5/3

गर्भ में बसकर माता-पिता के सम्बन्ध द्वारा मनुष्य का साधारण जन्म घर में होता है। दूसरा जन्म विद्या रूपी माता के गर्भ में, आचार्य रूपी पिता द्वारा गुरु-गृह में यज्ञोपवीत और विद्यारम्भ द्वारा होता है।

तत्र यद्ब्रह्यजमास्य मौञ्जीबन्धनचिन्हितम्।
तत्रास्य माता सावित्री पितात्वाचार्य उच्यते।।

यज्ञोपवीत-मेखला-धारण करने से मनुष्य का ब्रह्म-जन्म होता है। उस जन्म में गायत्री माता और आचार्य पिता है।

वेद       प्रदानादाचार्यं      पितरं     परिचक्षते।
नह्यस्मिन्युज्यते कर्म किंचिदामौंजिबन्धनात्।।

वेद पढ़ाने वाले आचार्य को पिता कहते हैं। जब बालक का यज्ञोपवीत-संस्कार हो जाता है, तब उसे धार्मिक कर्मों को करने का अधिकार मिलता है, इससे पूर्व नहीं।

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