धर्म एवं दर्शन >> गायत्री और यज्ञोपवीत गायत्री और यज्ञोपवीतश्रीराम शर्मा आचार्य
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यज्ञोपवीत का भारतीय धर्म में सर्वोपरि स्थान है।
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संयम- जीवन
शक्ति का, विचार शक्ति का, भोगेच्छा का, श्रम का सन्तुलन ठीक रखना ही संयम
है। न इसको घटने देना न नष्ट-निष्क्रिय होने देना और न अनुचित मार्ग में
व्यय होने देना। संयम का तात्पर्य है- शक्ति संचय। मानव-शरीर आश्चर्यजनक
शक्तियों का केन्द्र है। यदि उन शक्तियों का अपव्यय रोक कर उपयोगी दिशा
में लगाया जाय तो अनेक आश्यर्चजनक सफलतायें मिल सकती हैं और जीवन की
प्रत्येक दिशा में उन्नति हो सकती है।
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सेवा- सहायता,
सहयोग, प्रेरणा, उन्नति की ओर, सुविधा की ओर किसी को बढ़ाना यह उसकी सबसे
बड़ी सेवा है। इस दशा में हमारा शरीर और मस्तिष्क सबसे अधिक हमारी सेवा का
पात्र है, क्योंकि वह हमारे सबसे अधिक निकट है। आमतौर से दान देना, समय
देना या बिना मूल्य अपनी शारीरिक मानसिक शक्ति किसी को देना सेवा कहा जाता
है और यह अपेक्षा नहीं की जाती है कि हमारे इस त्याग से दूसरों में
कोई-शक्ति, आत्म-निर्भरता, स्फूर्ति-प्रेरणा जागृत हुई या नहीं। एक प्रकार
की सेवा दूसरों को आलसी, परावलम्बी और भाग्यवादी बनाने वाली हानिकारक भी
है। हम दूसरों की इस प्रकार प्रेरक सेवा करें, जो उत्साह, आत्म-निर्भरता
और क्रियाशीलता को सतेज करने में सहायक हो। सेवा का फल है उन्नति। सेवा
द्वारा अपने को तथा दूसरों समुन्नत बनाना, संसार को और अधिक आनन्दमय बनाना
महान् पुण्य कार्य है। इस प्रकार के सेवाभावी पुण्यात्मा सांसारिक और
आत्म-दृष्टि से सदा सुखी सन्तुष्ट रहते हैं।
यह नौ गुण निःसन्देह
नवरत्न हैं। लाल, मोती-मूँगा, पन्ना, पुखराज, हीरा, नीलम, गोमेद यह नौ
रत्न कहे जाते हैं जिनके पास यह रत्न होते हैं, वे सर्वसुखी समझे जाते
हैं। पर भारतीय धर्मशास्त्र कहता है कि जिनके पास यज्ञोपवीत और गायत्री
मिश्रित उपरोक्त आध्यात्मिक नवरत्न हैं वे इस भूतल के कुबेर हैं। भले ही
उनके पास धन-दौलत, जमीन-जायदाद न हो। यह नवरत्न मण्डित कल्पवृक्ष जिनके
पास है, वह विवेकयुक्त यज्ञोपवीत धारी सदा सुरलोक की सम्पदा भोगता है।
उसके लिये यह भू-लोक ही स्वर्ग है, वह कल्पवृक्ष हमें चारों फल देता है।
धर्म, अर्थ, काम मोक्ष चारों सम्पदाओं से हमें परिपूर्ण कर देता है।
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