धर्म एवं दर्शन >> गायत्री और यज्ञोपवीत गायत्री और यज्ञोपवीतश्रीराम शर्मा आचार्य
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यज्ञोपवीत का भारतीय धर्म में सर्वोपरि स्थान है।
(6) कते और इँठे हुए डोरे
को तीन चक्करों में विभाजित करके ग्रन्थि लगावे, आरम्भ में तीन गाँठें और
अन्त में एक गाँठ लगाई जाती है। कहीं-कहीं अपने गोत्र के जितने प्रवर होते
हैं उतनी ग्रन्थियाँ लगाते हैं और अन्त में अपने वर्ण के अनुसार ब्रह्म
ग्रन्थि, क्षत्रिय ग्रन्थि या वैश्य ग्रन्थि लगाते हैं। ग्रन्थियाँ लगाते
समय (त्रम्बकं यजामहे) मन्त्र का मन ही मन जप करना चाहिए। ग्रन्थि लगाते
समय मुख पूर्व की ओर रहना चाहिए।
(7)
यज्ञोपवीत धारण करते समय यह मन्त्र पढ़ना चाहिए-
यज्ञोपवीतं
परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्।
आयुष्यमग्र्यं
प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेज:।
(8)
यज्ञोपवीत उतारते समय यह मन्त्र पढ़ना चाहिए-
एतावद्
दिन पर्यन्तं ब्रह्म त्वं
धारित मया।
जीर्णत्वात्त्वत्परित्यागो
गच्छ
सूत्र यथा सुखम्।।
(9) जन्म-सूतक, मरण-सूतक,
चाण्डाल-स्पर्श, मुर्दे का स्पर्श, मल-मूत्र त्यागते समय कान पर यज्ञोपवीत
चढ़ाने में भूल होने के प्रायश्चित्त में, उपाकर्म में, चार मास पुराना हो
जाने पर, कहीं टूट जाने पर जनेऊ उतार देना चाहिए। उतारने पर उसे जहाँ-तहाँ
नहीं फेंक देना चाहिए वरन् किस पवित्र स्थान पर नदी, तालाब, पीपल, गूलर,
बड़, छोंकर जैसे पवित्र वृक्ष पर विसर्जित करना चाहिए।
(10) बाँये कंधे पर इस
प्रकार धारण करना चाहिए कि बाँये पार्श्व की ओर न रहे। लम्बाई इतनी होनी
चाहिए कि हाथ लंबा करने पर उसकी लम्बाई बराबर बैठे।
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