धर्म एवं दर्शन >> गायत्री और यज्ञोपवीत गायत्री और यज्ञोपवीतश्रीराम शर्मा आचार्य
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यज्ञोपवीत का भारतीय धर्म में सर्वोपरि स्थान है।
सिख सम्प्रदाय के
धर्मग्रन्थों में ऐसा ही जनेऊ धारण करने पर जोर दिया गया है। केवल मात्र
बाहरी जनेऊ से ही काम नहीं चलता। आत्मिक यज्ञोपवीत को धारण करने में ही
वास्तविक कल्याण है। मानसिक सद्गुणों का सूत्र धारण किये बिना केवल बाह्य
उपकरण मात्र से ही प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता। परन्तु आध्यात्मिक साधना
करने वाले व्यक्ति बिना बाह्य उपकरण के, अभीष्ट सिद्धि को प्राप्त कर लेते
हैं।
दया
कपास संतोख सूत, जत गँठी सत बट्ठा।
एक
जनेऊ जीऊ का, हईता
पांडे धत्त।।
वां
एक तुटै न मल लगै ना, इहु जलै न जाय।
धन्य
सो मानस नानका, जो गल चल्ले पाय।।
अर्थात्- हे पण्डित!
दयारूपी कपास का सन्तोष रूपी सूत बनावे और सत्य की ऐंठ देकर जत (इन्द्रिय
निग्रह) की गाँठ लगावे। जीव को यदि ऐसा यज्ञोपवीत आपके पास है तो पहनाओ।
इस प्रकार का यज्ञोपवीत न तो टूट सकता है और न मलिन हो सकता है। न जल सकता
है, न विनष्ट हो सकता है। वह मनुष्य धन्य है जो ऐसा यज्ञोपवीत गले में
पहनता है।
पत
बिन पूजा, सत बन संजम, जत बिन काहे जनेऊ।
अर्थात्-
1- विश्वास के बिना पूजा, सत्य के बिना संयम और इन्द्रिय निग्रह के बिना जनेऊ का क्या महत्व है।
2- जनेऊ का महत्त्व तभी है जब उसके साथ-साथ विश्वास, सत्य, संयम आदि आत्मिक गुण भी हों।
जो साधक मनोसंयम की पूर्णता तक पहुँच जाते हैं, उनके लिए कर्मकाण्डों का प्रयोजन शेष नहीं रह जाता। इसलिए चतुर्थ आश्रम में जाने पर सन्यासी लोग शिखा, सूत्र, अग्निहोत्र आदि का परित्याग कर देते हैं।
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