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धर्म एवं दर्शन >> गायत्री और यज्ञोपवीत

गायत्री और यज्ञोपवीत

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :67
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9695

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यज्ञोपवीत का भारतीय धर्म में सर्वोपरि स्थान है।


कई व्यक्ति कहते सुने जाते हैं कि हम आदर्श जीवन, द्विजत्व ग्रहण तो करना चाहते हैं पर उस समय तक हम द्विज नहीं रह सके हैं, इसलिए हम द्विजत्व के प्रतीक यज्ञोपवीत को धारण क्यों करें? यह आशंका भी उचित नहीं क्योंकि यज्ञोपवीत धारण करने का अर्थ द्विजत्व में प्रवेश करना आदर्श जीवन व्यतीत करने का व्रत लेना दिव्यता में प्रवेश करना है। इसका अर्थ यह नहीं कि जिस दिन व्रत लिया उसी दिन वह साधना पूर्ण भी हो जाना चाहिए। इस संसार में सभी प्राणी अपूर्ण और दोषयुक्त हैं। उन दोषों और अपूर्णताओं के कारण ही तो उन्हें शरीर धारण करना पड़ता है। जिस दिन वह दूर हो जायेगी, उस दिन शरीर धारण की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। कोई व्यक्ति चाहे वह कितना ही बड़ा महात्मा क्यों न हो किसी न किसी अंश में अपूर्ण एवं दोषयुक्त है। फिर क्या हम यह कहें कि ''जब सारा संसार ही पापी है, तो हमारे अकेले धर्मात्मा बनने से क्या लाभ?''

हमें इस प्रकार विचार करना चाहिए कि श्रेष्ठता की पाठशाला में प्रवेश करना द्विजत्व का व्रत लेना ही यज्ञोपवीत धारण करना है। पाठशाला में प्रवेश करने के दिन ''पट्टी-पूजा'' होती है, इसका अर्थ है कि अब उस बालक की नियमित शिक्षा आरम्भ हो गई। विद्या प्राप्त करने का उसने व्रत ले लिया। यदि कोई विद्यार्थी कहे कि- ''सरस्वती पूजा का अधिकार तो उसे है जो सरस्वतीवान् हो, पूर्ण हो, हम तो अभी दो-चार अक्षर ही जानते हैं फिर सरस्वती पूजा क्यों ?'' तो उसका यह प्रश्न असंगत है, क्योंकि वह सरस्वती पूजा का अर्थ यह समझता है कि जो पूर्ण सरस्वतीवान् हो जाय उसे ही पूजा करनी चाहिए। इस प्रकार तो संसार के किसी भी काम का कोई भी व्यक्ति करने का अधिकारी नहीं है, क्योंकि चाहे वह कितना ही अधिक क्यों न जानता हो, तो भी किसी न किसी अंश में वह अनजान अवश्य होगा। ऐसे तो कोई भी वकील डाक्टर पण्डित, शिल्पकार, गायक, अध्यापक न मिलेगा तो क्या उनके द्वारा किये जाने वाले सब काम रुके ही पड़े रहेंगे?

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