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कामायनी

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :177
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9700

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दर्शन

वह चंद्रहीन थी एक रात,
जिसमें सोया था स्वच्छ प्रात;
उजले-उजले तरक झलमल,
प्रतिबिंबित सरिता वक्षस्थल,
धारा बह जाती बिंब अटल,
खुलता था धीरे पवन-पटल,
चुपचाप खड़ी थी वृक्ष पांत,
सुनती जैसे कुछ निजी बात।

धूमिल छायायें रहीं घूम,
लहरी पैरों को रही चूम,
''मां! तू चल आयी दूर इधर,
संध्या कब की चल गयी उधर,
इस निर्जन में अब क्या सुंदर-
तू देख रही, हां बस चल घर
उसमें से उठता गंध-धूम
श्रद्धा ने वह मुख लिया चूम।''

''मां! क्यों तू है इतनी उदास,
क्या मैं हूं तेरे नहीं पास,
तू कई दिनों से यों चुप रह,
क्या सोच रही है? कुछ तो कह,
यह कैसा तेरा दु:ख-दुसह,
जो बाहर-भीतर देता दह,
लेती ढीली सी भरी सांस,
जैसे होती जाती हताश।''

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