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कामायनी

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :177
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9700

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''अंबे फिर क्यों इतना विराग,
मुझ पर न हुई क्यों सानुराग?''
पीछे मुड़ श्रद्धा ने देखा,
वह इड़ा मलिन छवि की रेखा,
ज्यों राहुग्रस्त-सी शशि-लेखा,
जिस पर विषाद की विष-रेखा,
कुछ ग्रहण कर रहा दीन त्याग,
सोया जिसका है भाग्य, जाग।

बोली ''तुमसे कैसी विरक्ति,
तुम जीवन की अंधानुरक्ति,
मुझसे बिछुड़े को अवलंबन,
देकर, तुमने रखा जीवन,
तुम आशामयी! चिर आकर्षण,
तुम मादकता की अवनत घन,
मनु के मस्तक की चिर-अतृप्ति,
तुम उत्तेजित चंचला-शक्ति!

मैं क्या दे सकती तुम्हें मोल,
यह हृदय! अरे दो मधुर बोल,
मैं हंसती हूं रो लेती हूं,
मैं पाती हूं खो देती हूं,
इससे ले उसको देती हूं,
मैं दुख को सुख कर लेती हूं,
अनुराग भरी हूं मधुर घोल,
चिर-विस्मृति-सी हूं रही डोल।

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