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कामायनी

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :177
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9700

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तुम दोनों देखो राष्ट्र-नीति,
शासक बन फैलाओ न भीति,
मैं अपने मनु को खोज चली,
सरिता, मरु, नग या कुंज-गली,
वह भोला इतना नहीं छली!
मिल जायेगा, हूं प्रेम-पली,
तब देखूं कैसी चली रीति,
मानव! तेरी ही सुयश गीति।''

बोला बालक ''ममता न तोड़,
जननी! मुझसे मुंह यों न मोड़,
तेरी आज्ञा का कर पालन,
वह स्नेह सदा करता लालन-
मैं मरूं जिऊं पर छुटे न प्रन,
वरदान बने मेरा जीवन!
जो मुझको तू यों चली छोड़,
तो मुझे मिले फिर यही क्रोड़!''

'' हे सौम्य! इड़ा का शुचि दुलार
हर लेगा तेरा व्यथा-भार,
यह तर्कमयी तू श्रद्धामय,
तू मननशील कर कर्म अभय,
इसका तू सब संताप निश्चय,
हर ले, हो मानव भाग्य उदय,
सब की समरसता कर प्रचार,
मेरे सुत! सुन मां की पुकार।''

''अति मधुर वचन विश्वास मूल,
मुझको न कभी ये जाएं भूल;
हे देवि! तुम्हारा स्नेह प्रबल,
वन दिव्य स्नेह-उद्गम अविरल,
आकर्षण घन-सा वितरे जल,
निर्वासित हों संताप सकल!''
कह इड़ा प्रणत ले चरण धूल,
पकड़ा कुमार-कर मृदुल फूल।

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