लोगों की राय

कविता संग्रह >> कामायनी

कामायनी

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :177
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9700

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

92 पाठक हैं


आशा

उषा सुनहले तीर बरसती जयलक्ष्मी-सी उदित हुई,
उधर पराजित कालरात्रि भी जल में अंतर्निहित हुई।

वह विवर्ण मुख त्रस्त प्रकृति का आज लगा हंसने फिर से,
वर्षा बीती, हुआ सृष्टि में शरद-विकास नये सिर से।

नव कोमल आलोक बिखरता हिम-संसृति पर भर अनुराग,
सित सरोज पर क्रीड़ा करता जैसे मधुमय पिंग पराग।

धीरे-धीरे हिम-आच्छादन हटने लगा धरातल से,
जगीं वनस्पतियां अलसाई मुख धोती शीतल जल से।

नेत्र निमीलन करती मानो प्रकृति प्रवृद्ध लगी होने,
जलधि लहरियों की अंगड़ाई बार-बार जाती सोने।

सिंधुसेज पर धरावधू अब तनिक संकुचित बैठी-सी,
प्रलय निशा की हलचल स्मृति में मान किये सी ऐंठी-सी।

देखा मनु ने वह अतिरंजित विजन विश्व का नव एकांत,
जैसे कोलाहल सोया हो हिम-शीतल जड़ता-सा श्रांत।

इंद्रनीलमणि महा चषक था सोम-रहित उलटा लटका,
आज पवन मृदु सांस ले रहा जैसे बीत गया खटका।

वह विराट् था हेम घोलता नया रंग भरने को आज,  
'कौन?' हुआ यह प्रश्न अचानक और कुतूहल का था राज!

''विश्वदेव, सबिता या पूषा, सोम, मरुत, चंचल पवमान,
वरुण आदि सब घूम रहे हैं किसके शासन में अम्लान?

किसका था भ्रू-भंग प्रलय-सा जिसमें ये सब विकल रहे,
अरे! प्रकृति के शक्ति-चिह्न ये फिर भी कितने निबल रहे!

विकल हुआ-सा कांप रहा था, सकल भूत चेतन समुदाय,
उनकी कैसी बुरी दशा थी वे थे विवश और निरुपाय।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book