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कामायनी

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :177
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9700

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शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गंध की पारदर्शिनी सुघड़ पुतलियां,
चारों ओर नृत्य करतीं ज्यों रूपवती रंगीन पुतलियां!
इस कुसुमाकर के कानन के अरुण पराग पटल छाया में,
इठलातीं सोतीं जगतीं ये अपनी भव-भरी छाया में।

वह संगीतात्मक ध्वनि इनकी कोमल अंगड़ाई है लेती,
मादकता की लहर उठाकर अपना अंबर तर कर देती।
आलिंगन-सी मधुर प्रेरणा छू लेती, फिर सिहरन बनती,
नव-अंबुलषा की व्रीड़ा-सी खुल जाती है, फिर जा मुंदती।

यह जीवन की मध्य-भूमि है रस-धारा से सिंचित होती,
मधुर लालसा की लहरों से यह प्रवाहिका स्पंदित होती।
जिसके तट पर विद्युत-कण से मनोहारिणी आकृति वाले,
छायामय सुषमा में विह्वल विचर रहे सुंदर मतवाले।

सुमन-संकुलित भूमि-रंध्र से मधुर गंध उठती रस-भीनी,
वाष्प अदृश्य फुहारें इसमें छूट रहे, रस-बूंदे झीनी।
घूम रही है यहां चर्तुदिक् चलचित्रों सी संसृति छाया,
जिस आलोक-विंदु को घेरे वह बैठी मुसक्याती माया।

भाव-चक्र यह चला रही है इच्छा की रथ-नाभि घूमती,
नवरस-भरी अराएं अविरल चक्रवाल को चकित चूमती।
यहां मनोमय विश्व कर रहा रागारुण चेतन उपासना,
माया-राज्य! यही परिपाटी पाश बिछा कर जीव फांसनां।

ये अशरीरी रूप, सुमन से केवल वर्ण गंध में फूले,
इन अप्सरियों की तानों के मचल रहे हैं सुंदर झूले।
भाव-भूमिका इसी लोक की जननी है सब पुण्य-पाप की,
ढलते सब, स्वभाव प्रतिकृति बन गल ज्वाला से मधुर ताप की।

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