कविता संग्रह >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
|
9 पाठकों को प्रिय 92 पाठक हैं |
यह संकेत कर रही सत्ता
किसकी सरल विकासमयी,
जीवन की लालसा आज क्यों
इतनी प्रखर विलासमयी?
तो फिर क्या मैं जिऊं और
भी-जीकर क्या करना होगा?
देव! बता दो, अमर-वेदना
लेकर कब मरना होगा?''
एक यवनिका, हटी, पवन से
प्रेरित मायापट जैसी,
और आवरण-मुक्त प्रकृति थी
हरी-भरी फिर भी वैसी।
स्वर्ण शालियों की कलमें
थीं दूर दूर तक फैल रहीं,
शरद-इन्दिरा के मंदिर की
मानो कोई गैल रही।
विश्व-कल्पना-सा ऊंचा वह
सुख-शीतल-संतोष-निदान,
और डूबती-सी अचला का
अवलंबन, मणि-रत्न-निधान।
अचल हिमालय का शोभनतम
लता-कलित शुचि सानु-शरीर,
निद्रा में सुख-स्वप्न
देखता जैसे पुलकित हुआ अधीर।
उमड़ रही जिसके चरणों में
नीरवता की विमल विभूति,
शीतल झरनों की धाराएं
बिखरातीं जीवन-अनुभूति!
उस असीम नीले अंचल में
देख किसी को मृदु मुसकान,
मानो हंसी हिमालय की है
फूट चली करती कल गान।
शिला-संधियों में टकराकर
पवन भर रहा था गुंजार,
उस दुभेंद्य अचल दृढ़ता का
करता चारण-सदृश प्रचार।
संध्या-घनमाला की सुंदर
ओढ़े रंग-बिरंगी छींट,
गगन-चुंबिनी
शैल-श्रेणियां पहने हुए तुषार-किरीट।
|