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कामायनी

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :177
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9700

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यह संकेत कर रही सत्ता किसकी सरल विकासमयी,
जीवन की लालसा आज क्यों इतनी प्रखर विलासमयी?

तो फिर क्या मैं जिऊं और भी-जीकर क्या करना होगा?
देव! बता दो, अमर-वेदना लेकर कब मरना होगा?''

एक यवनिका, हटी, पवन से प्रेरित मायापट जैसी,
और आवरण-मुक्त प्रकृति थी हरी-भरी फिर भी वैसी।

स्वर्ण शालियों की कलमें थीं दूर दूर तक फैल रहीं,
शरद-इन्दिरा के मंदिर की मानो कोई गैल रही।

विश्व-कल्पना-सा ऊंचा वह सुख-शीतल-संतोष-निदान,
और डूबती-सी अचला का अवलंबन, मणि-रत्न-निधान।

अचल हिमालय का शोभनतम लता-कलित शुचि सानु-शरीर,
निद्रा में सुख-स्वप्न देखता जैसे पुलकित हुआ अधीर।

उमड़ रही जिसके चरणों में नीरवता की विमल विभूति,
शीतल झरनों की धाराएं बिखरातीं जीवन-अनुभूति!

उस असीम नीले अंचल में देख किसी को मृदु मुसकान,
मानो हंसी हिमालय की है फूट चली करती कल गान।

शिला-संधियों में टकराकर पवन भर रहा था गुंजार,
उस दुभेंद्य अचल दृढ़ता का करता चारण-सदृश प्रचार।

संध्या-घनमाला की सुंदर ओढ़े रंग-बिरंगी छींट,
गगन-चुंबिनी शैल-श्रेणियां पहने हुए तुषार-किरीट।

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