कविता संग्रह >> कामायनी कामायनीजयशंकर प्रसाद
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जल-प्लावन भारतीय इतिहास
में एक ऐसी ही प्राचीन
घटना है, जिसने मनु को देवों से विलक्षण, मानवों की एक भिन्न संस्कृति
प्रतिष्ठित करने का अवसर दिया। वह इतिहास ही है। 'मनवे वै प्रात:' इत्यादि
से इस घटना का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण के आठवें अध्याय में मिलता है। देवगण
के उच्छ्रृंखल स्वभाव, निर्बाध आत्मतुष्टि में अंतिम अध्याय लगा और मानवीय
भाव अर्थात् श्रद्धा और मनन का समन्वय होकर प्राणी को नए युग की सूचना
मिली। इस मन्वंतर के प्रवर्तक मनु हुए। मनु भारतीय इतिहास के आदि पुरुष
हैं। राम, कृष्ण और बुद्ध इन्हीं के वंशज हैं। शतपथ ब्राह्मण में उन्हें
श्रद्धादेव कहा गया है, 'श्रद्धादेवो वै मनु, (का०1 प्र०1)'। भागवत में
इन्हीं वैवस्वत मनु और श्रद्धा से मानवीय सृष्टि का प्रारम्भ माना गया है।
'ततो
मनु: श्राद्धदेवः
संज्ञायामास भारत
श्रद्धायां
जनयामास दश
पत्रानस आत्मवान्'' ( 9-1-11)
इनके
संबंध में वैदिक साहित्य में बहुत-सी बातें बिखरी हुई मिलती हैं; किंतु
उनका कम स्पष्ट नहीं है। जल-प्लावन का वर्णन शतपथ ब्राह्मण के प्रथम कांड
के आठवें अध्याय से आरम्भ होता है, जिसमं उनकी नाव के उत्तरगिरि
हिमवान प्रदेश में पहुंचने का प्रसंग है। वहां ओध के जल का आवरण होने पर
मनु भी जिस स्थान पर उतरे उसे मनोरवसर्पण कहते हैं।
श्रद्धा के
साथ मनु का मिलन होने के बाद उसी निर्जन प्रदेश में उजड़ी हुई सृष्टि को
फिर से आरंभ करने का प्रयत्न हुआ। किन्तु असुर पुरोहित के मिल जाने से
इन्होंने पशु-बलि की। इस यज्ञ के बाद मनु में जो पूर्व-परिचित
देव-प्रवृत्ति जाग उठी। उसने इड़ा के संपर्क में आने पर उन्हें श्रद्धा के
अतिरिक्त एक दूसरी ओर प्रेरित किया। इड़ा के संबंध में शतपथ में कहा गया है
कि उसकी उत्पत्ति या पुष्टि पाक यज्ञ से हुई और उस पूर्णयोषिता को देखकर
मनु ने पूछा कि ''तुम कौन हो?'' इड़ा ने कहा, 'तुम्हारी दुहिता हूं।' मनु
ने पूछा कि 'मेरी दुहिता कैसे?' उसने कहा, 'तुम्हारे दही, घी इत्यादि के
हवियों से ही मेरा पोषण हुआ है।'
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