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कामायनी

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :177
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9700

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वह आकुलता अब कहां रही जिसमें सब कुछ ही जाय भूल,
आशा के कोमल तंतु-सदृश तुम तकली में हो रही झूल।

यह क्यों, क्या मिलते नहीं तुम्हें शावक के सुन्दर मृदुल चर्म?
तुम बीज बीनती क्यों? मेरा मृगया का शिथिल हुआ न कर्म।

तिस पर यह पीलापन कैसा-यह क्यों बनने का श्रम सखेद?
यह किसके लिए, बताओ तो क्या इसमें है छिप रहा भेद?''

''अपनी रक्षा करने में जो चल जाय तुम्हारा कहीं अस्त्र,
वह तो कुछ समझ सकी हूं मैं - हिंसक से रक्षा करे शस्त्र।

पर जो निरीह जीकर भी कुछ उपकारी होने में समर्थ,
वे क्यों न जियें, उपयोगी बन - इसका मैं समझ सकी न अर्थ!

चमड़े उनके आवरण रहे ऊनों से मेरा चले काम,
वे जीवित हो मांसल बन कर हम अमृत दुहें - वे दुग्धधाम।

वे द्रोह न करने के स्थल हैं जो पाले जा सकते सहेतु,
पशु से यदि हम कुछ ऊंचे हैं तो भव-जलनिधि में बनें सेतु।''

''मैं यह तो मान नहीं सकता सुख सहज-लब्ध यों छूट जाय,
जीवन का संघर्ष चले वह विफल रहे हम छले जायं।

काली आंखों की तारा में - मैं देखूं अपना चित्र धन्य,
मेरा मानस का मुकुर रहे प्रतिबिंबित तुमसे ही अनन्य।

श्रद्धे! यह नव संकल्प नहीं - चलने का लघु जीवन अमोल,
मैं उसको निश्चय भोग चलूं जो सुख चलदल सा रहा डोल!

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