लोगों की राय

कविता संग्रह >> कामायनी

कामायनी

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :177
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9700

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

92 पाठक हैं


अपनी मीठी रसना से वह बोलेगा ऐसे मधुर बोल,
मेरी पीड़ा पर छिडकेगा जो कुसुम-धूलि मकरंद घोल।

मेरी आंखों का सब पानी तब बन जायेगा अमृत स्निग्ध,
उन निर्विकार नयनों में जब देखूंगी अपना चित्र मुग्ध!''

तुम फूल उठोगी लतिका सी कंपित कर सुख सौरभ तरंग,
मैं सुरभि खोजता भटकूंगा वन-वन बन कस्तूरी कुरंग।

यह जलन नहीं सह सकता मैं चाहिये मुझे मेरा ममत्व,
इस पंचभूत की रचना में मैं रमण करूं बन एक तत्व।

यह द्वैत, अरे यह द्विविधा तो है प्रेम बांटने का प्रकार।
भिक्षुक मैं! ना, यह कभी नहीं - मैं लौटा लूंगा निज विचार।

तुम दानशीलता से अपनी वन सजल जलद वितरो न बिंदु।
इस सुख-नभ में मैं विचरूंगा बन सकल कलाधर शरद-इंदु।

भूले से कभी निहारोगी कर आकर्षणमय हास एक,
मायाविनि! मैं न उसे लूंगा वरदान समझकर-जानु टेक!

इस दीन अनुग्रह का मुझ पर तुम बोझ डालने में समर्थ-
अपने को मत समझो श्रद्धे! होगा प्रयास यह सदा व्यर्थ।

तुम अपने सुख से सुखी रहो मुझको दुख पाने दो स्वतंत्र,  
'मन की परवशता महा-दुःख' मैं यही जपूंगा महामंत्र!

लो चला आज मैं छोड़ यहीं संचित संवेदन-भार-पुंज,
मुझको कांटे ही मिलें धन्य! हो सफल तुम्हें ही कुसुम-कुंज।''

कह ज्वलनशील अंतर लेकर मनु चले गये था शून्य प्रांत,  
''रुक जा सुन ले ओ निर्मोही!'' वह कहती रही अधीर श्रांत!

0 0 0

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book