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कामायनी

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :177
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9700

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अनवरत उठे कितनी उमंग
चुंबित हों आंसू जलधर से अभिलाषाओं के शैल-श्रृंग,
जीवन-नद हाहाकार भरा-हो उठती पीड़ा की तरंग।
लालसा भरे यौवन के दिन पतझड़ से सूखे जायें बीत,
संदेह नये उत्पन्न रहें उनसे संतप्त सदा सभीत।
फलेगा स्वजनों का विरोध बन कर तम वाली श्याम-अमा,
दारिद्रय दलित बिलखाती हो यह शस्यश्यामला प्रकृति-रमा।
दुख-नीरद में बन इंद्रधनुष बदले नर कितने नये रंग-
बन तृष्णा-ज्वाला का पतंग।

वह प्रेम न रह जाये पुनीत
अपने स्वार्थों से आवृत हो मंगल-रहस्य सकुचे सभीत,
सारी संसृति हो विरह भरी, गाते ही बीतें करुण गीत।
आकांक्षा जलनिधि की सीमा हो क्षितिज निराशा सदा रक्त,
तुम राग-विराग करो सबसे अपने को कर शतश: विभक्त।
मस्तिष्क हृदय के हो विरूद्ध, दोनों में हो सद्भाव नहीं,
वह चलने को जब कहे कहीं तब हृदय विकल चल जाय कहीं।
रोकर बीतें सब वर्तमान क्षण सुंदर अपना हो अतीत,
पेंगों में झूले हार-जीत।

संकुचित असीम अमोघ शक्ति
जीवन को बाधा-मय पथ पर ले चले मेद से भरी भक्ति,
या कभी अपूर्ण अहंता में हो रागमयी-सी महाशक्ति।
व्यापकता नियति-प्रेरणा बन अपनी सीमा में रहे बंद,
सर्वज्ञ-ज्ञान का क्षुद्र-अंश विद्या बनकर कुछ रचे छंद।
कर्तृत्व-सकल बनकर आये नश्वर-छाया-सी ललित-कला,
नित्यता विभाजित हो पल-पल में काल निरंतर चले ढला।
तुम समझ न सको, बुनाई से शुभ-इच्छा की है बड़ी शक्ति,
हो विफल तर्क से भरी युक्ति।

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